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________________ (8) ब्रह्मचर्य-प्रबन्धन जैनाचार्यों के अनुसार, आत्मा के द्वारा आत्मा (ब्रह्म) में रमण करना (चर्या) ही ब्रह्मचर्य है और यह आत्मा का मूल स्वभाव है अर्थात् करणीय कर्त्तव्य है।47 इससे स्पष्ट है कि जैनाचार्यों की दृष्टि में मैथुनादि कामभोग असेव्य हैं। वस्तुतः, इन्द्रिय-विषयों के सेवन को आवश्यक नहीं माना जा सकता, किसी हद तक पूर्व-संस्कारों का दबाव असहनीय होने से इन्हें विवशतावश स्वीकारा जा सकता है। इसी दृष्टि से अब्रह्मचर्य की वासनाओं को सीमित करने के लिए जैनाचार्यों ने निम्नलिखित निर्देश दिए ★ पराई स्त्री यानि दूसरे की पत्नी, वाग्दत्ता, विधवा आदि के साथ अनैतिक सम्बन्धों का निषेध 248 ★ वेश्या, कॉलगर्ल आदि कालविशेष के लिए गृहीत स्त्री के साथ भी यौन सम्बन्धों का निषेध ।249 * ब्रह्मचर्य व्रत का आंशिक या पूर्ण ग्रहण। ★ ब्रह्मचर्य की नववाडों (गुप्तियों) का पालन करना 50 - • स्त्री, पशु एवं नपुंसक के संसर्ग वाले स्थान का सेवन नहीं करना। • स्त्री-कथा नहीं करना। • स्त्रियों के उठने-बैठने के स्थान का सेवन नहीं करना। • स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को नहीं देखना। • स्निग्ध, रसदार, घी-तेल बहुल भोजन नहीं करना। • अतिमात्रा में आहार नहीं करना। • पूर्वकाल में किए भोगों और काम-क्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करना। • दीवारादि की आड़ में स्त्रियों के शब्द, गीत, रूप आदि न देखना-सुनना। • शरीर की शोभा-विभूषादि नहीं करना। ★ बाल्यावस्था एवं वृद्धावस्था में विवाह नहीं करना। * अन्य कुल वालों के साथ विवाह नहीं करना। ★ स्वदारा-सन्तोष करना एवं बहुविवाह से बचना। कहा भी जाता है - ‘एक नारी सदा ब्रह्मचारी'। ★ पर्वतिथियों एवं तीर्थयात्रादि में ब्रह्मचर्य का पूर्णतः पालन करना। ★ मासिक-धर्म का पालन करना, उस काल में अब्रह्मचर्य सेवन नहीं करना। * यथायोग्य समय पर यावज्जीवन ब्रह्मचर्य व्रत को पूर्णतया स्वीकारना। (उपर्युक्त बिन्दुओं को महिलाओं के लिए भी यथायोग्य ग्रहण करना चाहिए।) 291 अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन 65 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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