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(3) प्राणवायु-प्रबन्धन
जैनदर्शन में प्राणवायु (श्वास) का महत्त्व बहुत अधिक है, इसमें प्राणवायु को जीवनधारिणी प्राणशक्ति के रूप में प्रतिपादित किया गया है। 209 एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों के जीवन-अस्तित्व का मुख्य घटक है - प्राणवायु। जैनाचार्यों ने सूक्ष्म दृष्टि से यह भी बताया है कि जीवन के प्रारम्भ में श्वास योग्य सामर्थ्य जब तक विकसित नहीं होता, तब तक जीवन-विकास की सम्भावना ही नहीं बनती और श्वास–प्रक्रिया (श्वास-प्राण) जब समाप्त हो जाती है, तब जीवन भी समाप्त हो जाता है।
मेरी दृष्टि में, इस महत्त्वपूर्ण प्राणवायु के सम्यक् प्रबन्धन के लिए व्यक्ति की आवश्यकताएँ इस प्रकार हैं -
ROHSREKenames
* श्वास कैसी लेना? शुद्ध
★ कितनी लेना? * कब लेना? ★ कैसे लेना?
पूर्ण नियमित सहज/अत्वरित
उपर्युक्त चारों मापदण्डों की पूर्ति के लिए जैनआचारशास्त्रों में अनेक सूत्र निर्दिष्ट हैं। यद्यपि जैनाचार्यों की मूल दृष्टि आध्यात्मिक है, तथापि उनके द्वारा आत्मोन्नति के लिए निर्देशित सूत्र प्राणवायु-प्रबन्धन के लिए भी उपयोगी हैं। इनमें से प्रमुख सूत्र हैं -
★ ब्रह्ममुहूर्त में उठना, जिससे शुद्ध वायु मिल सके। ★ सामायिक अर्थात् समता भाव में जीने की साधना करना, जिससे चित्तवृत्ति शान्त हो, उद्वेग
समाप्त हो और मन प्रसन्न हो। इससे श्वास की गति भी सहज और नियमित बन जाती है। * प्रातः एवं सायं प्रतिक्रमण करना, जिसमें कायोत्सर्ग की साधना भी स्वतः हो जाती है। कायोत्सर्ग और श्वास का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। जैसे-जैसे कायोत्सर्ग के द्वारा ममत्व भावों का विसर्जन होता है, वैसे-वैसे श्वास की उथल-पुथल शान्त होने लगती है, श्वास गहरी, लम्बी और लयबद्ध होती जाती है। जैनाचार्यों ने कायोत्सर्ग की साधना में समय के निर्धारण के लिए श्वासोच्छवास (प्राणापान) की एक सामान्य गणना भी बताई है।10
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अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
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