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________________ 1) आहार - प्रबन्धन 2) जल - प्रबन्धन 3) प्राणवायु - प्रबन्धन 4) श्रम - विश्राम - प्रबन्धन 5 ) निद्रा -प्रबन्धन (1) आहार - प्रबन्धन 109 110 आहार जीवन की सबसे प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है। यह हमारे स्वास्थ्य सहित सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करता है । निशीथभाष्य में आहार के बारे में कहा गया है कि यह शरीर-संचालन का साधन है। व्यवहारभाष्य में भी कहा गया है कि आहार से उत्तम रत्न लोक में दूसरा नहीं, क्योंकि यह समस्त सुखों का उत्पादक है, जीवन का सार है तथा जीवन व्यवहार का आधार है । ' वैद्य-रसराज-समुच्चय में भी आहार को एक अद्वितीय, अनुपम एवं अनुत्तर रत्न की उपमा दी गई है । 111 यद्यपि जैनाचार्यों ने आत्मा को अनाहारी स्वभाववाला बताया है, तथापि सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा से आहार के महत्त्व को नकारा भी नहीं है। जीवन में आहार जितना आवश्यक है, उससे भी अधिक आवश्यक है आहार का विवेक । जो लोग आहार क्यों करना, कैसा करना, कब करना, कहाँ करना, कितना करना, कितनी बार करना, कैसे करना इत्यादि बिन्दुओं का चिन्तन नहीं करते, वे खाद्य एवं अखाद्य का विवेक नहीं रख पाते। यह अविवेक कभी उनका स्वास्थ्य छीनता है, तो कभी जीवन भी । 112 अतः शरीर-प्रबन्धन के लिए निम्नोक्त बिन्दुओं को समझना अत्यावश्यक है 36 113 (क) आहार क्यों करना जैनाचार्यों के अनुसार, आहार करने का प्रमुख प्रयोजन जीवन - अस्तित्व की सुरक्षा एवं जीवन-यापन की व्यवस्था करते हुए मोक्षमार्ग की साधना करना है । 1 इसी आधार पर मुनि को परिलक्षित करके आहार करने और नहीं करने के प्रयोजन को उत्तराध्ययनसूत्र, स्थानांगसूत्र, ओघनिर्युक्तिभाष्य एवं मूलाचार में बताया गया है 114 - - Jain Education International 6) स्वच्छता - प्रबन्धन 7) शृंगार (साज-सज्जा ) - प्रबन्धन 8) ब्रह्मचर्य - प्रबन्धन 9 ) मनोदैहिक - प्रबन्धन 10) अन्य कारक - प्रबन्धन आहार करने के प्रयोजन 1) भूख की पीड़ा शान्त करने हेतु 2) वैयावृत्य (सेवा-शुश्रूषा) करने हेतु 3) आवश्यक कर्त्तव्य ( समिति) पालन हेतु 4) संयम के सम्यक् निर्वाह हेतु 5) प्राणों की रक्षा हेतु 6) उचित धर्मध्यान करने हेतु आहार नहीं करने के प्रयोजन 1) ज्वरादि अत्यन्त पीड़ाकारक रोग होने पर 2) उपसर्ग (तीव्र संकट) आने पर 3) ब्रह्मचर्य की रक्षा हेतु 4) जीवदया हेतु 5) तपस्या करने हेतु 6) समाधिमरण हेतु जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 262 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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