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________________ ★ यंत्र के समान ही शरीर को नुकसानकारी अर्थात् अनावश्यक तत्त्वों से बचाना चाहिए। ★ यंत्र के समान ही शरीर का रख-रखाव इस प्रकार करना चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर वह तुरन्त काम आ सके । ★ यंत्र के समान ही शरीर की कार्यकुशलता (Efficiency) का विकास करना चाहिए, जिससे न्यूनतम ईन्धनों (आहारादि साधनों) से अधिकतम कार्य लिया जा सके। ★ यंत्र के समान ही शरीर का प्रयोग अनावश्यक कार्यों में नहीं, अपितु आवश्यक कार्यों में करना चाहिए । ★ यंत्र के समान ही बिगड़ जाने पर (अस्वस्थ होने पर) शरीर को दुरुस्त करना चाहिए । ★ यंत्र के समान ही शरीर के आदि एवं अन्त दोनों होते हैं । ★ यंत्र के समान ही अनुपयोगी बनने के पूर्व शरीर का सदुपयोग कर लेना चाहिए । इस प्रकार, शरीर को एक यंत्र के समान मानकर उसके प्रति सन्तुलित दृष्टिकोण रखना चाहिए। इससे शरीर व्यक्ति के जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उचित साधन बन सके। जैनदर्शन में इस दृष्टिकोण के विकास के लिए अनेकों निर्देश दिए गए हैं। 5.4.2 शरीर - प्रबन्धन का उद्देश्य T शरीर - प्रबन्धन का मुख्य उद्देश्य है शारीरिक - विकास । शारीरिक विकास से यहाँ तात्पर्य शरीर की क्षमताओं के विकास से है। जब तक शरीर की क्षमताओं का सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित विकास नहीं होगा, तब तक वह जीवन के किसी भी लक्ष्य की पूर्ति का साधन नहीं बन सकेगा । अतः, शारीरिक - विकास की जरुरत प्रत्येक जीवन- प्रबन्धक को है । 34 शरीर - प्रबन्धन में शारीरिक - विकास का अर्थ यह नहीं है कि शरीर खूब स्थूल हो, ऊँची कद-काठी का हो इत्यादि । इसका अर्थ तो इतना ही है कि शरीर बहिरंग एवं अंतरंग दोनों प्रकार से स्वस्थ एवं चुस्त बने, जिससे वह उचित साध्य की प्राप्ति में सहयोगी बन सके । मेरी दृष्टि में, शारीरिक - विकास के तीन पहलू हो सकते हैं - 2) स्फूर्त्ति 1) स्वस्थता 3) सौन्दर्य (1) स्वस्थता यहाँ स्वस्थता का सम्बन्ध शारीरिक स्वस्थता से है, जैनाचार्यों ने इस हेतु 'आरोग्य' शब्द का प्रयोग किया है। 1103 उनके अनुसार, रोग - शून्यता या रोग का अभाव ही आरोग्य है ( अरोगस्य भावः इति आरोग्यम्) । कल्याणकारक एवं आयुर्वेद ग्रन्थों में कहा गया है कि स्वस्थता के पाँच आधार हैं 104 ★ वात, पित्त एवं कफ में साम्यता पाचन-तन्त्र की कुशलता ★ सप्त धातुओं की उचित मात्रा - Jain Education International ★ मलोत्सर्जन की नियमितता ★ आत्मा, मन और इन्द्रियों की प्रसन्नता जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 260 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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