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________________ 5.2 शरीर का महत्त्व उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर के बारे में कहा गया है - सरीरमाहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरन्ति महेसिणो।। अर्थात् शरीर एक नौका है, जिसमें जीव रूपी नाविक बैठकर संसार रूपी समुद्र को पार कर सकता है। इससे स्पष्ट है कि जैनदृष्टि में शरीर जीवन का अन्तिम साध्य तो नहीं है, किन्तु एक ऐसा महत्त्वपूर्ण साधन अवश्य है, जिसके बिना साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती, अतः जैनदृष्टि में शरीर (साधन) का महत्त्व स्वतः ही सिद्ध है। यह सत्य है कि जीवन-प्रबन्धक के लिए शरीर एक उपयोगी साधन है, फिर भी इसके मोहजाल में फँसकर वह अपने जीवन-लक्ष्य से भटक सकता है। अतः शरीर के अनित्य , अपवित्र आदि नकारात्मक पक्षों का उल्लेख भी जैनशास्त्रों में किया गया है। द्वादशानुप्रेक्षा के अनुसार, यह शरीर अशुचि है, दुर्गन्धमय है, घृणित है, जड़ है तथा इसका स्वभाव ही सड़ना और गलना है। भावप्राभृत के अनुसार, " यह मानव-शरीर अनेकानेक रोगों का आश्रय है, इसके एक-एक अंगुलस्थान में छियानवे-छियानवे रोग होते हैं। मूलाचार में कहा गया है – हाड, मांस, कफ, चर्बी, रुधिर, चमड़ा, पित्त, आँतें, मूत्र, पीप आदि से युक्त यह शरीर है, जो अपवित्र है, साथ ही अनेक दुःखों और रोगों का स्थान है। शान्तसुधारस के अनुसार, जिस छिद्रयुक्त घड़े में से शराब गिरती हो, वैसे अस्वच्छ गन्दे घड़े को मिट्टी से साफकर गंगाजल से धोया जाए, तो भी वह अपवित्र ही रहता है, वैसे ही बीभत्स हड्डी, मल-मूत्र , रजादि से भरा यह शरीर भी विभिन्न प्रयत्नों से शुद्ध नहीं होता। वस्तुतः, जैनदर्शन अनेकान्तमूलक है, इसमें शरीर के सन्दर्भ में एक सन्तुलित एवं यथार्थ दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया गया है। किसी एक पक्ष को ही महत्त्व न देकर, शरीर के सकारात्मक एवं नकारात्मक – दोनों पक्षों का समन्वय किया गया है। यदि शरीर को सम्पूर्ण अनर्थ का घर कहा गया है, तो इसे ही देवालय भी कहा गया है। यदि इसे दुःखों का मूल कहा गया है, तो इसे ही सुख का प्राथमिक साधन भी कहा गया है। यदि यह रोगों का आश्रयस्थल है, तो यही आरोग्य-बोधि की प्राप्ति का सही माध्यम भी है। यदि इसे अपवित्र कहा गया है, तो इसे उदार अर्थात् उत्तम भी कहा गया है। अतः, यह जरुरी है कि शरीर-प्रबन्धक शरीर के प्रति सापेक्ष एवं यथार्थ दृष्टिकोण का विकास करे। इसी दृष्टिकोण की पुष्टि करते हुए उपाध्याय विनयविजयजी ने भी कहा है2 - केवलमलमयपुद्गलनिचये, अशुचिकृतशुचिभोजन सिचये। वपुषि विचिन्तय परमिहसारं, शिवसाधनसामर्थ्यमुदारं ।। 16 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 242 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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