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________________ 4.6.6 कार्य का सही क्रियान्वयन करना (Right Implementation of Work) कार्य के सफल सामयिक क्रियान्वयन का अद्भूत माहात्म्य है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व, उत्साह, आत्मविश्वास और प्रभाव में चार चाँद लगा देता है। इससे व्यक्ति परिवार में प्रतिष्ठा और समाज में मान्यता प्राप्त करता है। वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विजेता के समान उभरता है। हर व्यक्ति ऐसी दशा प्राप्त तो करना चाहता है, लेकिन प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि कार्य का सही क्रियान्वयन नहीं कर पाता, अतः सफलता के लिए दायित्व (कार्य) का सम्यक् क्रियान्वयन आवश्यक है। (क) मन की एकाग्रता – मानव की सबसे बड़ी शक्ति भी मन है और सबसे बड़ी समस्या भी। जैसे बन्दर क्षण भर भी शान्त नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी संकल्प-विकल्प से क्षण भर के लिए शान्त नहीं होता। जो कार्य एक घण्टे में पूरा होना चाहिए, मन की एकाग्रता के अभाव में उसमें चार घण्टे भी लग सकते हैं और यदि मन की एकाग्रता बन जाए, तो उसी कार्य को आधे घण्टे में भी पूरा किया जा सकता है। अतः कार्य के सम्यक क्रियान्वयन के लिए मन की अचपलता, स्थिरता, शान्ति और एकाग्रता अत्यन्त आवश्यक है। (ख) सतत जागरुकता – कार्य के सही क्रियान्वयन के लिए सतत जागरुकता (अप्रमत्तता) बहुत जरुरी है। आचारांगसूत्र के अनुसार, बुद्धिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए। इसमें स्पष्ट कहा है कि जो सोता है, वह असाधक (अमुनि) है और जो जागता है, वह साधक (मुनि) है। बार-बार उपदेश देते हुए कहा है कि 'तू देख! तू देख!' (पास! पास!) अर्थात् प्रमाद को छोड़कर अप्रमत्त अवस्था (द्रष्टाभाव) को प्राप्त हो। उत्तराध्ययनसूत्र में भी समयमात्र का प्रमाद नहीं करने को कहा गया है। भगवान् महावीर कहते हैं – समय बड़ा भयंकर है और इधर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता हुआ शरीर है, अतः साधक को भारण्ड पक्षी की तरह सदा अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिए। वस्तुतः समय-प्रबन्धक (Time Manager) भी एक साधक ही है, जो अपनी जीवनशैली को साधने का प्रयत्न कर रहा है, अतः प्रयत्न में जागरुकता होनी ही चाहिए। (ग) कार्य के प्रति रुचि - जैनदर्शन में कहा गया है – “रूचि अनुयायी वीर्य' अर्थात् किसी कार्य में होने वाली रुचि का अनुकरण करके हमारा पुरूषार्थ (वीर्य/उद्यम) स्फूटित होता है। जब किसी कार्य में पुरूषार्थ अधिक होता है, तो सफलता की सम्भावना अधिक हो जाती है, अतः हमें चाहिए कि हम अनमने ढंग से या बोझ समझकर कार्य को नहीं करते हुए पूरे उत्साह और आनन्दपूर्वक जीवन का प्रत्येक कार्य करें, क्योंकि अनमने ढंग से कार्य करने का अर्थ है - अपने बहुमूल्य समय, श्रम एवं धन का अपव्यय करना। (घ) समयप्रबद्धता (Punctuality) – भगवान् महावीर कहते हैं कि असमय का त्यागकर समयोचित कर्त्तव्य करें। जैनसाधु के लिए कहा गया है कि प्रत्येक कार्य का अपना समय है, जिसमें उसे कार्य को निष्पन्न करना चाहिए। 99 सूत्रकृतांगसूत्र का कथन है – अन्नं अन्नकाले, पाणं पाणकाले, लेणं 26 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 208 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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