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इनका संप्रयोग करना चाहिए। जैनदर्शन कहता है कि 'नाम' और 'धन' तो गँवाने के बाद भी मिल सकते हैं, लेकिन मनुष्य जीवन का समय तो महादुर्लभ है, अतः हमें यह सोचना होगा कि यदि कार्य सौंपने के दायित्व - बोध से समय-प्रबन्धन हो सकता है, तो यह सकारात्मक दृष्टि है। स्वयं प्रभु आदिनाथजी ने उचित समय जानकर भरतसहित अपने सौ पुत्रों को राज्य सौंपकर आत्मकल्याण के निमित्त संयम अंगीकार कर लिया था । 84
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दूसरों को कार्य का दायित्व देने का आशय दूसरों का शोषण भगवान् महावीर का सूत्र है - आयतुले पयासु । इसका आशय है देखो। बृहत्कल्पभाष्यकार के अनुसार, जो हम अपने लिए चाहते हैं, जो अपने लिए नहीं चाहते हैं, उसे दूसरों के लिए भी न चाहें। महर्षि व्यास का भी सूत्र है आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् अर्थात् जो काम हमें अपने लिए प्रतिकूल है, वह हम दूसरों के लिए न करें। यदि हम किसी की रोटी छीनते हैं, तो चिन्तन करें कि वह हमारी रोटी छीनेगा, तो कैसा लगेगा। श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने स्वार्थवृत्ति के आधार पर दो संस्कृतियों की तुलना बहुत सुन्दर ढंग से की है। उन्होंने कहा 'अमेरिका के लिए सारी दुनिया एक बाजार है और हमारे लिए सारी दुनिया एक कुटुम्ब है ।' आशय यह है कि हमारा व्यवहार स्वार्थपरक नहीं होकर आत्मीयतापरक होना चाहिए, इसीलिए भगवान् महावीर को कहना पड़ा कि किसी की आजीविका मत छीनो । 87
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जैनाचार्य हरिभद्रसूरि ने गृहस्थ जीवन के योग्य जिन प्राथमिक गुणों का उल्लेख किया है, उन्हें ‘मार्गानुसारी गुण’ कहा जाता है। इनमें निम्नलिखित गुण प्रस्तुत प्रसंग में उपयुक्त
★ न्यायनीतिपूर्वक आजीविकोपार्जन करना ★ सत्पुरूषों की संगति करना
★ सदाचारी पुरूषों को उचित सम्मान देना
★ अपने आश्रितों का पालन-पोषण करना
★ अपने उपकारी के उपकार का विस्मरण नहीं करना
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करना कतई नहीं होना चाहिए ।
सब जीवों को अपनी आत्मतुल्य
वही दूसरों के लिए भी चाहें और
★ काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर आदि आन्तरिक शत्रुओं से बचने का प्रयत्न करना इत्यादि । कभी-कभी दूसरों को कार्य सौंपने का अर्थ जीवन की पराश्रितता मान लिया जाता है, परन्तु यह सत्य नहीं है। वस्तुतः, जैनदर्शन पराश्रित जीवन के बजाय परस्पराश्रित जीवन (Interdependent Life) की पहल करता है। दूसरों को कार्य सौंपने का अर्थ यह नहीं है कि हम निष्क्रिय हो जाएँ अथवा भोगों में तल्लीन हो जाएँ, बल्कि यह है कि हम कार्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति से उचित सहयोग लेकर अल्पसमय में कार्य को सम्पन्न कर सकें ।
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जैन साधु-साध्वियों में भी परस्पर - आश्रितता का सिद्धान्त मान्य है। गुरू-शिष्य के सम्बन्ध के साथ-साथ गण, कुल, शाखा, गच्छ आदि की व्यवस्थाएँ इसकी द्योतक हैं।
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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