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________________ 4.4 समय का अप्रबन्धन और उसके दुष्परिणाम यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वर्तमान युग में जहाँ एक ओर मनुष्य ने समय को अत्यधिक प्रधानता दी है, वहीं दूसरी ओर उसके जीवन में समय की अव्यवस्था का भी अतिरेक हुआ है। समय का सम्यक् नियोजन ही मनुष्य के सन्तुलित, सुव्यवस्थित और समग्र विकास का महत्त्वपूर्ण कारक है, जिसके अभाव में मनुष्य-जीवन में कई विसंगतियाँ उत्पन्न हो रही हैं। ★ कार्यभार बढ़ रहा है, जिससे व्यक्ति कम समय में ही स्वयं को कमजोर और तनावग्रस्त महसूस करता है। इसका नकारात्मक प्रभाव उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। ★ जीवन में अनावश्यक और अकरणीय कार्यों में समय नष्ट हो जाता है और अत्यावश्यक अथवा आवश्यक कार्यों के लिए समय नहीं मिल पाता है। ★ जीवनशैली असन्तुलित बनने से व्यक्ति किसी क्षेत्रविशेष में अत्यधिक समय देकर अन्य क्षेत्रों को अनदेखा कर देता है। उदा. - यदि कोई व्यक्ति आर्थिक क्षेत्र में 12 घण्टे देता है, तो उसे पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों की उपेक्षा करनी पड़ती है। इससे उसका जीवन असन्तुलित हो जाता है। दुष्परिणाम यह आता है कि वह एक क्षेत्र में सफलता अर्जित कर भी लेता है, तो भी अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में विफलता का अनुभव करता है। ★ समय की अव्यवस्था से मन की चंचलता, अस्थिरता, उत्तेजना, निराशा, तनाव आदि दोषों में अभिवृद्धि होती है, जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का पतन हो जाता है। ★ समयपरक जीवनशैली के अभाव में व्यक्ति कभी प्रमादी और कभी जल्दबाजी करने वाला हो जाता है। ★ समयोचित कार्य नहीं कर पाने पर व्यक्ति को पछतावा भी खूब होता है, जिससे वह अक्सर अतीत की स्मृतियों में ही खोया रहता है। युवावस्था में बचपन की और वृद्धावस्था में यौवन की कमियों को सोच-सोचकर दुःखी होता रहता है। उसे सोचना चाहिए – 'का वर्षा जब कृषि सुखाने , समय चूकि पुनि का पछताने'12 ★ अपेक्षित सफलता न मिलने पर दूसरों के प्रति व्यवहार में असन्तोष, रोष, शिकायतें, डाँट-फटकार, छल-कपट, ईर्ष्या आदि बुराइयाँ प्रकट होती हैं। इससे परस्पर प्रेम और आत्मीयता घटने लगती है तथा वैर एवं वैमनस्य बढ़ने लगते हैं। सार रूप में यह कहा जा सकता है कि समय की अव्यवस्था के परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व का पतन होता है, जिससे समयोचित सफलता नहीं मिल पाती और जीवन अशान्तिमय एवं तनावमय हो जाता है। अतएव भगवान् महावीर का निर्देश रहा है कि जिस समय का जो कार्य है, उसे उसी समय में करो। =====< >===== जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 190 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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