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________________ अध्याय 4 समय-प्रबन्धन (Time Management) 4.1 जैनदर्शन में समय का स्वरूप एवं समय की मौलिक विशेषताएँ 4.1.1 समय प्रबन्धन : सामान्य परिचय जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है – समय का सही प्रबन्धन करना, क्योंकि कार्य की निष्पत्ति और सफलता की प्राप्ति समय-सापेक्ष होती है। जो व्यक्ति अपने समय का प्रबन्धन करने में कुशल होते हैं, वे भले ही सामान्य परिस्थितियों और साधारण क्षमताओं वाले हों, फिर भी जीवन के हर क्षेत्र में सफल होते हैं। भगवान् महावीर, आइंस्टीन, महात्मा गाँधी आदि की अप्रमत्तता (समय के प्रति सजगता), इसके प्रमाण हैं। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र के दसवें अध्याय में भगवान् महावीर अपने प्रधान शिष्य गौतम को बार-बार कहते हैं - समयं गोयम! मा पमायए अर्थात् हे गौतम! समय मात्र का प्रमाद मत करो। व्यक्ति की प्रगति में समय-प्रबन्धन का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर के अनुसार, प्रत्येक कार्य की सफलता चार कारकों के समुच्चय पर निर्भर करती है। ये हैं - द्रव्य , क्षेत्र, काल एवं भाव । अन्य सभी कारक मिल जाएँ, किन्तु काल अर्थात् समय का सम्यक् प्रबन्धन न हो, तो उचित समय पर वांछित परिणाम की प्राप्ति नहीं हो सकती। जैनदर्शन के ‘पंचकारक समवाय' सिद्धान्त के अनुसार, प्रत्येक घटना के पीछे 'काल' का भी महत्त्वपूर्ण अवदान होता है। आज का युग न्यूनतम समय में अधिकतम कार्य करने में विश्वास रखने वाला युग है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अभूतपूर्व सफलता पाना चाहता है, फिर भी वर्तमान युग में व्यक्ति की समय सापेक्ष कई समस्याएँ हैं, जैसे - ★ मेरे पास समय (टाइम) नहीं है। ★ मैं अत्यधिक व्यस्त हूँ। * मैं सुबह से लगा हूँ, लेकिन काम पूरा नहीं हो सका। ★ मैं ऑफिस का काम घर पर पूरा करता हूँ। 183 अध्याय 4: समय-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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