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________________ 6) कुछ पूछे जाने पर न तो बैठे-बैठे सुनना और न ही बैठे-बैठे जवाब देना। 7) गुरु के प्रति 'तू' शब्द का प्रयोग नहीं करना। 8) आज्ञा को अस्वीकार करके उल्टा नहीं कहना कि 'आप ही कर लो'। 9) हितोपदेश देने पर ध्यान से सुनना, न कि टोकना। 10) गुरु के आसन से ऊँचे या समान आसन पर बैठना, खड़ा होना या सोना नहीं इत्यादि। वर्तमान युग में भावात्मक विकास का तेजी से ह्रास होने से विनय, विवेक, धैर्य, सहिष्णुता आदि सद्गुण लुप्त होते जा रहे हैं। जैनाचार्यों ने इसे शिक्षा की सार्थकता के लिए सबसे बड़ी बाधा माना है। अतः शिक्षा-प्रबन्धन के लिए शिक्षार्थी को इन भूलों से बचना चाहिए और विनय, वैयावृत्य (सेवा) एवं सहिष्णुता के बल पर सम्यक् शिक्षा का उपार्जन करना चाहिए। यही जीवन-विकास का आधार है। कहा भी गया है 'धम्मस्स विणओ मूलं' अर्थात् धर्म का मूल विनय है।19 3.7.10 शिक्षा प्रबन्धन की कार्यविधि सर्वप्रथम व्यक्ति को अपने जीवन-व्यवहारों के आधार पर अपनी शिक्षा का सम्यक् मूल्यांकन करना चाहिए, न कि डिग्री आदि के आधार पर। मूल्यांकन के अन्तर्गत उसे विचार करना चाहिए कि उसकी शिक्षा सम्पूर्ण है या अपूर्ण? अथवा सुव्यवस्थित है या अव्यवस्थित? इस प्रश्न का सम्यक् निर्णय करने के लिए उसे अपने जीवन-विकास के छह आयामों की सुव्यवस्थित समीक्षा करनी चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि कौन-कौन से आयाम उपेक्षित हैं तथा किन-किन आयामों में अतिरेक है? जो आयाम उपेक्षित हैं, उनमें मूलतः व्यावहारिक शिक्षा की कमी कारणभूत है या आध्यात्मिक शिक्षा की? और इन कमियों में भी ग्रहणात्मक शिक्षा (सैद्धान्तिक शिक्षा) की कमी कारणभूत है या आसेवनात्मक शिक्षा (प्रायोगिक शिक्षा) की? इस प्रकार जीवन-प्रबन्धक को अपने व्यक्तित्व का समुचित निरीक्षण, परीक्षण एवं समीक्षण करना चाहिए। यह सम्भव है कि स्वयं अपना सम्यक् मूल्यांकन न हो पाए, अतः अन्यों से उचित सुझाव भी लेना योग्य है। जैन-परम्परा में इसीलिए गुरु के समक्ष जाकर उनसे हितशिक्षाएँ लेने की पद्धति है। जैन श्रावक गुरु के समक्ष ही अपने दोषों की गर्दा (आत्मनिन्दा) भी करता है तथा अपने व्यवहार को सुधारने हेतु संकल्पित (प्रत्याख्यान से युक्त) भी होता है। . सर्वांग से समीक्षा करने के पश्चात् यदि व्यावहारिक शिक्षा में कमी महसूस हो, तो जीवन-प्रबन्धक को व्यावहारिक शिक्षासंस्थानों में जाकर इस कमी को दूर करना चाहिए। कारण, आज पूर्ववत् गुरुकुलों की व्यवस्था नहीं रही, यदि है भी, तो अत्यल्प है। यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि व्यावहारिक शिक्षा की प्राप्ति के साथ-साथ कुसंस्कारों की प्राप्ति न हो जाए। इस हेतु मुख्य जवाबदारी स्वयं शिक्षार्थी एवं उसके अभिभावकों की होनी चाहिए। ___ यदि मूल्यांकन के आधार पर आध्यात्मिक शिक्षा में कमी महसूस हो, तो जीवन-प्रबन्धक को आध्यात्मिक शिक्षा साधनों का उपयोग कर इस कमी को दूर करना चाहिए। यह सम्भव है कि वर्तमान जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 58 172 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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