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2) उपनीत संस्कार - आठवें वर्ष में बालक की उपनीति क्रिया होती थी। जैनकथानकों में
भगवान् महावीर, महाबलकुमार, दृढ़प्रतिज्ञ आदि के शिक्षा ग्रहण के समय उपनयन-उत्सव का वर्णन प्राप्त होता है। इस अवसर पर बालक को ज्ञानार्जन में बाधक प्रवृत्तियों, जैसे - ताम्बूल-सेवन, अंजन लगाना, उबटन लगाना, शृंगारपूर्वक स्नान करना, नाटकादि देखना, पलंग पर सोना आदि का त्याग करना होता था और इसी प्रकार से श्वेत और सादे वस्त्र धारण, शुद्ध अल्प जल से स्नान, अल्प-आहार, विद्या प्राप्ति के लिए श्रम, अल्पनिद्रा एवं ब्रह्मचर्य का पालन आदि प्रवृत्तियाँ करनी होती थी। 3) व्रतचर्या संस्कार - विद्या अध्ययन के समय कर्त्तव्य एवं अकर्तव्य का विवेक विकसित करने
हेतु व्रतचर्या संस्कार के अन्तर्गत ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करना होता था। 4) व्रतावतरण क्रिया या दीक्षान्त संस्कार – अध्ययन कार्य के बारह अथवा सोलह वर्ष व्यतीत
हो जाने पर व्रतावतरण क्रिया की जाती थी। इसके पश्चात् विद्यारम्भ के समय त्याग किए गए आभूषण, माला, वस्त्र आदि गुर्वाज्ञा से पुनः धारण कराए जाते थे, साथ ही स्थूल हिंसा आदि के त्याग रूप सदाचारमयी प्रवृत्तियाँ, जो पूर्व में अपनाई जाती थी, उनका पालन व्रतावतरण क्रिया के बाद में भी करना होता था।
वर्तमान में जैनपरम्परा एवं अन्य भारतीय परम्पराओं में यह शिक्षाप्रणाली लुप्त हो गई है, फिर भी शिक्षा के सम्यक् प्रबन्धन के लिए आंशिक परिवर्तन के साथ यह अनुकरणीय है। आज भी यदि व्रतों का पालन करते हुए सादगीपूर्ण तरीके से अध्ययन हो, तो बौद्धिक विकास के साथ-साथ भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास सहज ही हो सकता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक विशेषतः सर सिगमण्ड फ्रायड आदि के अनुसार, जीवन के प्रारम्भिक काल के संस्कार एवं व्यवहार का सम्पूर्ण
| जीवन-व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है, अतः यदि शिक्षाकाल में बालक को उत्तम संस्कारों से सुसज्जित कर दिया जाए, तो विश्व में स्वस्थ व्यक्ति एवं स्वस्थ समाज की कल्पना साकार हो सकती है, इस प्रकार नई पीढ़ी का नवनिर्माण हो सकता है।
___ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षार्थी को शिक्षार्जन के साथ-साथ निम्नलिखित कार्य करना चाहिए, जिससे उसके चरित्र की भी सम्यक् प्रकार से उन्नति हो सके - 1) हत्या, बलात्कार, दंगे आदि क्रूरतामय दृश्यों को प्रसारित करने वाले मनोरंजन के विविध
साधनों, जैसे - टी.वी., चलचित्र आदि से नियमपूर्वक दूर रहना। 2) चरित्रहीन मित्रों से उचित दूरी रखना। 3) अश्लील अथवा फूहड़ पत्र-पत्रिकाओं का पठन नहीं करना। 4) समय एवं संस्कारों को नष्ट करने वाली प्रवृत्तियों, जैसे – घूमने-फिरने, सैर-सपाटे, होटलिंग
करने आदि से दूर रहना। 5) तड़कीले-भड़कीले वस्त्रों की अपेक्षा संस्कृति के अनुरूप परिधान पहनना।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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