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________________ PREPRERNADARASRAJPORDPRG 1) शुश्रूषा (जिज्ञासा) विषय को जानने की अभिलाषा। 2) अवण मा एकाग्रचित्त होकर उपदेशादि सुनना (उपलक्षण से पढ़ना)। 3) ग्रहण उपदिष्ट विषय के अर्थ को समझना। धारणा विषय को याद रखना। 5) विज्ञान ज्ञान को व्यवस्थित एवं सन्देहरहित करना। जाने हुए ज्ञान को विधेयात्मक युक्ति-तक आदि के द्वारा व्यापक बनाना, जैसे - घर में अग्नि देखकर उसका निश्चय करना और फिर कभी पर्वत पर धुनी देखकर यह अग्नि है', ऐसी युक्ति लगाना। 7) अपोह जाने हुए ज्ञान को निषेधात्मक युक्ति-तर्क आदि के द्वारा व्यापक बनाना, जैसे - किसी जीव की हिंसा करने से पाप लगता है, यह निर्णय करने के पश्चात् 'किसी जीव को दुःख देने से भी पाप लगता है', ऐसी युक्ति लगाना। 8 तत्वामिनिवेश विज्ञान ऊह, अपोह के आधार पर यथार्थ ज्ञान करने के लिए सम्यक दृष्टिकोण बनाना। MAN शिक्षा-प्रबन्धक को चाहिए कि वह जिज्ञासा के साथ विषय का श्रवण करे तथा क्रमशः आगे बढ़ते हुए विषय से सम्बन्धित सही दृष्टिकोण बनाए। वस्तुतः, जब तक सही दृष्टिकोण नहीं बनता, तब तक सैद्धान्तिक शिक्षा को पूर्ण नहीं माना जा सकता। यह जैनाचार्यों का स्पष्ट निर्देश है तथा मानसिक, भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास की प्राप्ति का सही मार्ग भी। इस प्रकार, निर्णीत विषय का बारम्बार ध्यान करके अपने विधेयात्मक भावों की जागृति बनानी चाहिए, जिससे हर परिस्थिति में चित्त की समता एवं समाधि बनी रहे। 3.7.5 शब्द से भावार्थ तक पुस्तक में पढ़े हुए अथवा कानों से सुने हुए शब्दों का सही अर्थबोध करना भी अत्यावश्यक है। यदि शब्द का प्रसंगानुरूप आशय समझ में न आए, तो न केवल शब्द निरर्थक हो जाता है, वरन् कभी-कभी अनर्थकारी भी हो जाता है, इसीलिए जैन-परम्परा में शब्द से अधिक महत्त्व अर्थ को दिया गया है। शब्द सिर्फ साधन है, साध्य नहीं, साध्य तो अर्थ ही है। शब्द तो केवल अर्थ को समझाने के लिए एक प्रतीक या संकेत के समान है, जिसके वाच्यता-सामर्थ्य की अपनी एक सीमा है। उदाहरणस्वरूप - गन्ना, आम, तरबूज, रसगुल्ला आदि पदार्थों की मिठास अलग-अलग होने के बावजूद भी इन सबको मीठा कहना पड़ता है, क्योंकि शब्द की अपनी सीमा है।103 अतः शब्द से भी अधिक महत्त्व अर्थबोध का है।104 यदि अर्थबोध सम्यक् होगा तो ही शिक्षा की सार्थकता होगी। प्रश्न उठता है कि व्यक्ति सम्यक् अर्थबोध कैसे करे? सम्यक् अर्थबोध के लिए जैनाचार्यों ने पाँच प्रकार से वाक्य का अर्थ समझने की पद्धति प्रतिपादित की है, जो प्रत्येक शिक्षार्थी के लिए अनुकरणीय है105 - 52 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 166 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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