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________________ ★ जैन-संघ में समय-समय पर वाचनाओं के माध्यम से जैन-साहित्य का एकीकरण (Unification) एवं प्रमापीकरण (Standardisation) होता रहा, इससे न केवल जैनसाहित्य का संरक्षण होता रहा, बल्कि जैन-दार्शनिक तत्त्वों की एकता भी बनी रही, साथ ही उनमें विवेचन एवं व्याख्या की गहराई भी आई।50 ★ शिक्षा-स्थान के चयन की आंशिक सुविधा का दर्शन हमें प्राचीनयुग की शिक्षाप्रणाली में होता है। तब व्यक्ति गुरुकुलवास या गुरुगृहवास भी करता था और नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला आदि में अध्ययन के लिए सुदूर विदेशों से भी आता था। ★ यह सार्वभौमिक नियम है कि जहाँ दृष्टि आध्यात्मिक होती है, वहाँ सामाजिक भेद-भाव वाली संकीर्ण बुद्धि के लिए कोई स्थान नहीं होता है। जैनदर्शन आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सम्पन्न है। इसमें सामाजिक सद्भावना का सुन्दर समायोजन मिलता है। भगवान् महावीर के अनुयायी चारों वर्गों के थे, जैसे - • राजा श्रेणिक आदि - क्षत्रिय • सेठ सुदर्शन आदि - वैश्य • इंद्रभूति गौतम आदि – ब्राह्मण • हरिकेशी आदि - शूद्र भगवान् महावीर की दृष्टि में सामान्य शिक्षा एवं आध्यात्मिक शिक्षा किसी वर्गविशेष के लिए नहीं, वरन् सभी के लिए सरलता से ग्राह्य थी। इन्होंने सभी वर्गों के स्त्री-पुरूषों को आध्यात्मिक वेकास का समान रूप से अधिकारी माना था। जिस काल में स्त्री-शिक्षा को सबने त्याज्य ठहराया, उस समय में भगवान् महावीर ने इसे प्रारम्भ कर स्त्रियों के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए, जिससे स्त्री जाति में भी विकास की चेतना जाग्रत हुई। श्रीमद्राजचंद्र ने भी स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहित करते हुए कहा है कि स्त्रियों को शिक्षित करके स्त्री-जाति की दशा को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए - भणावी गणावी वनिता सुधारो। * आज के समान कम्प्यूटर मल्टीमीडिया जैसी सुविधा उस युग में उपलब्ध नहीं होते हुए भी जैन-शिक्षा में दृश्य और श्रव्य सामग्रियों का प्रयोग तो होता ही था। जिन-प्रतिमा, चित्र, नाटक आदि प्रमुख दृश्य-सामग्रियाँ रहीं, जबकि वाचना आदि प्रमुख श्रव्य-सामग्रियाँ रही। * जैनधर्म में शिक्षा-व्यवस्था सदैव ही लोचपूर्ण रही। कई बार गीतार्थ आचार्यों, उपाध्यायों और मुनि-भगवन्तों ने देश, काल एवं परिस्थिति सापेक्ष परिवर्तन भी किए हैं। उत्सर्ग (सामान्य)-अपवाद की व्यवस्थाएँ भी इसकी परिचायक हैं। 2 इस प्रकार, आधुनिक शिक्षाप्रणाली में जो सकारात्मक विशेषताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, उसके अनेक तथ्य प्राचीन शिक्षाप्रणाली में भी मिलते हैं और शिक्षा-प्रबन्धन के लिए इन सिद्धान्तों की प्रासंगिकता से इंकार नहीं किया जा सकता है। =====< >===== 133 अध्याय 3: शिक्षा-प्रबन्धन 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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