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________________ (2) जीवन में उचित - अनुचित के प्रबन्धन का निर्देश जीवन में प्रतिसमय कोई न कोई व्यवहार चलता ही रहता है। प्रत्येक प्राणी मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों में निरन्तर संलग्न रहता है । परन्तु आचरण के सभी रूप उचित ही हों, यह जरुरी नहीं है। अक्सर व्यक्ति हित-अहित का विवेक खो देता है और बारम्बार गलत आचरण की पुनरावृत्ति करता रहता है। जैनदृष्टिकोण से देखें, तो जीवन - प्रबन्धन के लिए यह जीवन-व्यवहार बाधक है, अतः यह आवश्यक है कि साधक प्रत्येक प्रवृत्ति को उचितता एवं अनुचितता की कसौटी पर कसे और अपने गलत आचरण के अभ्यास को छोड़े। इस हेतु वह सद्ज्ञान एवं सद्-अभ्यास पर बल दे । दशवैकालिक में कहा गया है कि उचित (कल्याणकारी) एवं अनुचित (पापकारी) प्रवृत्तियों का सम्यक् विश्लेषण करके जो उचित हो, उसका अनुसरण करना चाहिए । 25 श्रमणसूत्र में भी अपने गुण-दोषों का सम्यक् विश्लेषण करके मुनि संकल्प करता है। 'मैं आराधना, संयम, ब्रह्मचर्य, कल्पनीय ( आचार), ज्ञान, क्रिया, सम्यक्त्व एवं सन्मार्ग आदि शुभ प्रवृत्तियों को ग्रहण करता हूँ तथा विराधना, असंयम, अब्रह्मचर्य, अकल्पनीय (अनाचार), अज्ञान, अक्रिया, मिथ्यात्व एवं कुमार्ग आदि अशुभ प्रवृत्तियों का निषेध करता इससे स्पष्ट है कि जैन आचारमीमांसा पुण्य-पाप, उचित - अनुचित या कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विवेक सिखाती है” और यह बात जीवन - प्रबन्धन के लिए भी अतिमहत्त्वपूर्ण है। , 26 (3) जीवन - व्यवहार के सम्यक् मूल्यांकन एवं नैतिक प्रतिमानों (Ethical Standards) का निर्देश जीवन- प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने कुत्सित विचारों को छोड़कर विवेकयुक्त उचित नैतिक आदर्शों को अपना मानदण्ड बनाए। साथ ही वह अपने आचरण को हर समय तौलता रहे। वह देखे कि उसका आचरण उसके जीवन के सम्यक् लक्ष्यों की दिशा में चल रहा है अथवा नहीं। इस हेतु जीवन - प्रबन्धक को जैनआचारदर्शन के सहयोग की अपेक्षा है। उत्तराध्ययनसूत्र में गणधर गौतम कहते हैं कि 'प्रज्ञा (बुद्धि) के द्वारा धर्म की समीक्षा करो, सुतर्क (युक्ति) के द्वारा तत्त्व का विश्लेषण करो और अन्त में धर्म-साधनों अर्थात् जीवन - व्यवहार ( जीवन - प्रबन्धन) के मार्ग का निर्णय करो।' अतः जैनआचारशास्त्रों के द्वारा व्यक्ति सम्यक् नैतिक निर्णय कर सकता है। कहा भी गया है 'पढमं नाणं तओ दया' अर्थात् पहले ज्ञान, फिर दया ( आचार) 129 ,28 (4) सामाजिक नियमों अथवा रीति-रिवाजों का निर्देश जीवन-प्रबन्धन के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति सामाजिक-व्यवस्था एवं रीति-रिवाजों से भी अवगत रहे । देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार समाज में अनेक परिवर्तन भी आते रहते हैं, क्योंकि समाज एक गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organisation) है। इनमें से कई परिवर्त्तन आगे चलकर अन्धविश्वास, अन्धरूढ़ि, आडम्बर आदि का रूप भी ले लेते हैं, जो समाज को और उसकी व्यवस्था को विकृत करते रहते हैं । जीवन - प्रबन्धन के लिए इस प्रकार की विकृतियों से दूर रहकर उचित एवं समयानुकूल सामाजिक व्यवस्थाओं को अपनाना आवश्यक है। इसी प्रकार, समाज में कई ऐसे व्यक्तित्व अध्याय 2 : जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन- प्रबन्धन 9 99 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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