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________________ 1.9 निष्कर्ष प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ का विषय है - जैनआचार में जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व। इसके प्रथम अध्याय में हमने जीवन-प्रबन्धन के मूलभूत सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है। आधुनिक युग में 'प्रबन्धन' एक बहुप्रचलित विधा के रूप में लोकप्रिय है, किन्तु इसका क्षेत्र अब तक भी सीमित ही है, इसमें आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का प्रायः अभाव है। इसके विपरीत, प्राचीन भारतीय-दर्शनों और विशेषरूप से जैनदर्शन की दृष्टि अतिव्यापक है। इसमें निर्दिष्ट सिद्धान्तों में भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का सम्यक् सामंजस्य स्थापित किया गया है। जैनआचारमीमांसा (जैनआचारशास्त्रों) में जीवन-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक दोनों पक्षों का वर्णन मिलता है, जो जीवन-व्यवहार को समीचीन बनाने हेतु सम्यक् मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। यही कारण है कि हमने प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के लिए जैनआचारमीमांसा (जैनआचारशास्त्रों) को अपना आधार बनाया है। जैनआचारमीमांसा पर आधारित जीवन-प्रबन्धन विषय में प्रवेश हेतु 'जीवन' और 'प्रबन्धन' दोनों के स्वरूप को सही ढंग से समझना अत्यावश्यक है। 'जीवन' आत्मा और शरीर की संयोगजन्य अवस्था है। आध्यात्मिक-दृष्टि से आत्मा ही जीवन का एकमात्र आधार है, परन्तु व्यावहारिक-दृष्टि से जिसमें चेतना का संचार महसूस होता है, उस शरीर को भी जीवन का एक अंग कहा गया है। आत्मा और शरीर में जीवन की अभिव्यक्ति जिस शक्ति के माध्यम से होती है, उसे जैनग्रन्थों में प्राण कहा गया है। यह प्राण जीवन का लक्षण है, क्योंकि इसके सद्भाव में जीवन का अस्तित्व बना रहता है और इसके अभाव में जीवन समाप्त हो जाता है। यह प्राण दो प्रकार का होता है - प्रथम निश्चय-प्राण कहलाता है, जो आत्मा की चैतन्य-शक्ति है और द्वितीय व्यवहार–प्राण कहलाता है, जो शरीर में विद्यमान पाँच इन्द्रियों, मन, वचन, काया, आयु एवं श्वासोच्छवास का समुच्चय है। जीवन-प्रबन्धन वस्तुतः, इन प्राण-द्वय का सम्यक् प्रवर्तन ही है। ___ जीवन से जुड़े अनेक पहलू हैं, जैसे – सभी प्राणियों के लिए जीवन का महत्त्व एवं स्थान सर्वोपरि होना, जीवन का प्रतिसमय परिवर्तित होना, बीते हुए जीवन का लौटकर नहीं आना, जीवन की अन्तिम परिणति मृत्यु होना इत्यादि। इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर ही कोई व्यक्ति अपने जीवन को सम्यक् दिशा में नियोजित कर सकता है। यद्यपि संसार में अनेक जीवनरूप हैं, जिन्हें जैनशास्त्रों में गति, इन्द्रिय, हलन-चलन आदि के आधार पर अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया गया है, फिर भी इनमें मनुष्य-जीवन की श्रेष्ठता को निर्विवाद रूप से स्वीकारा गया है। मनुष्य में आध्यात्मिक, मानसिक, वाचिक , शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में विकास करने की अद्भुत योग्यता है, जो इस बात को सिद्ध करती है कि जीवन-प्रबन्धन का सुयोग्य पात्र मानव ही है। अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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