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________________ स्वरूप का बोध ध्यान के आलम्बन से ही हो सकता है, क्योंकि मन विविध पदार्थों में परिभ्रमण करता रहता है और उसका जो बोध चैतन्य (आत्मा) को होता है, उस बोध को ही 'ज्ञान' कहते हैं, परन्तु जब वह ज्ञान निर्धात दीपक की लौ के समान स्थिर या एक ही विषय पर स्थिर हो जाता है, तब उसे ध्यान कहते हैं। बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार, दृढ़ अध्यवसायस्वरूप चित्त को ध्यान कहते हैं। वह तीन प्रकार का हैमानसिक, वाचिक और कायिक । इन तीन प्रकार के चित्त का ध्यान भी तीन प्रकार का है- 1. तीव्र 2. मन्द एवं 3. मध्य । जैसे सिंह की गति मन्द (विलम्बित), प्लुत (न अतिमन्द और न अतिप्लुत) और द्रुत (अतिशीघ्र वेगवाली)- इस प्रकार तीन भेदों वाली होती है, वैसे ही दृढ़ अध्यवसाय का स्वरूप ध्यान भी मृदु, मध्य और तीव्र- इन तीन स्वरूपों वाला होता है। ध्यान की परिभाषा (अन्य परम्पराओं में) - गीता के अन्तर्गत मन की चंचलता के निरोध को वायु के निरोध के समान अति कठिन माना गया है। उसमें उसके निरोध के दो उपाय बताए गए हैं- 1. अभ्यास और 2.वैराग्य ।' पातंजलयोगदर्शन में, चित्त का अनवरत एवं अबाधित रूप से ध्येय वस्तु पर एकाग्र हो जाना ही ध्यान है।12 वैराग्य-दशा में कभी-कभी मन बहिर्मुखी हो सकता है, किन्तु निरन्तर अभ्यास से वह अन्तर्मुखता की ओर मुड़ जाता है। मन की स्थिति को बार-बार केन्द्रित करना 42 तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। – योगदर्शन- 3/2. ५३ (क) पातंजल योगसूत्र- 1.13. (ख) योगवासिष्ठ- 6.2/67/43. " वही- 1.15. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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