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कि उनके लिए ध्यान-साधना ही अति महत्त्वपूर्ण थी। वे कठिनतम ध्यान-साधना करते थे। भगवान् महावीर अपनी कठिनतम ध्यान-साधना से विचलित नहीं हुए थे। निम्न उद्धरण महावीर की ध्यानसाधना को पूर्णतः प्रकट करता है
अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं।
उड्ढ अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिपडिण्णे।।' वे महावीर उत्कृष्ट आसनों में स्थित होकर निरन्तर अविचलित दशा से ध्यान करते थे। उर्ध्व, अधो और तिर्यक् देखते हुए समाधि में मग्न और अनाकांक्ष रहते थे। .. _ 'आचारांग-सूत्र' की शीलांकाचार्य टीका में आचारांगचूर्णि एवं आवश्यकचूर्णि के अन्तर्गत भगवान् महावीर की ध्यान-साधना के सम्बन्ध का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे प्रमुख रूप से उर्ध्वलोक तथा मध्यलोक में स्थित जीवाजीवादि तत्त्वों का आलम्बन लेकर ध्यान में मग्न हो जाते थे।'
“सुण्णागारा वणस्संतो णिवाय सरणप्पदीपज्झाणमिवणिप्प कंपे।।
इसका अर्थ है कि जिस प्रकार सुनसान आगार में निर्वात (वायुरहित) स्थल में जिस तरह दीपक प्रज्ज्वलित रहता है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ ध्यानावस्था में निष्प्रकम्प रहते हैं। आगमोत्तर-काल में अनेक जैन-आचार्यों, विद्वानों द्वारा ध्यान-सम्बन्धी विषय पर प्रकाश डाला गया, यथा- पूर्वधर महर्षि उमास्वाति ने 'तत्त्वार्थसूत्र' और उनके द्वारा रचित उसके ‘स्वोपज्ञभाष्य' में ध्यान का वर्णन किया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य के सामायिक अध्ययन के बाद ध्यान-विषयक 'झाणज्झयण' नामक ग्रन्थ लिखा है। सुरिपुन्दर हरिभद्र ने तो 'आवश्यकनियुक्ति' पर सुविस्तृत टीका की रचना के अन्तर्गत सम्पूर्ण 'ध्यानशतक' को ही उद्धृत किया है, साथ ही 'संबोधप्रकरण' में भी स्वतन्त्र विभाग के रूप में सम्पूर्ण ध्यानशतक को समाहित किया है। आचार्य सिद्धसेनसूरि ने तत्त्वार्थसूत्र के 'स्वोपज्ञभाष्य' की टीका में तत्त्वार्थ के ध्यान-सम्बन्धी सूत्रों एवं उनके भाष्य की विशद विवेचना की है। संवेगरंगशाला ग्रन्थ के आचार्य
6 (क) आचारांगसूत्र, अध्याय 9, उद्देशक.4, गाथा 67. (ख) आचारांगवृत्तिपत्र 312.
' (क) आचारांगशीलाटीका, पत्रांक 315. (ख) आचारांगचूर्णि, मूलपाठ टिप्पण, सूत्र 320. (ग) आवश्यकचूर्णि, पृ. 324.
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