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सुखलाल ने अपने ग्रन्थ 'समदर्शी हरिभद्र' में तथा डॉ. नथमल टाटिया ने अपने ग्रन्थ 'Studies in Jain Philosophy' में ध्यान और योग के सन्दर्भ में एक स्वतन्त्र विभाग रखा है। आचार्य हरिभद्र और उनकी योग-साधना से सम्बन्धित जो शोध-कार्य हुए हैं, उनमें यत्र-तत्र ध्यान की चर्चा तो मिलती है, फिर भी ये शोध-ग्रन्थ भी ध्यान का सांगोपांग विवेचन नहीं करते हैं। मेरी जानकारी में ध्यान के सन्दर्भ में सर्वप्रथम शोध कार्य साध्वी प्रियदर्शनाजी द्वारा 'जैन साधना-पद्धति में ध्यान-योग' विषय पर हुआ है । यह ग्रन्थ प्रकाशित है और इसकी पूर्व पीठिका के रूप में डॉ.सागरमल जैन की लगभग चालीस पृष्ठों की भूमिका है। दूसरा शोध-ग्रन्थ 'जैनधर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास-क्रम' के नाम से डॉ. सागरमल जैन के मार्गदर्शन में साध्वी उदितप्रभाजी द्वारा लिखा गया है। प्रथम ग्रन्थ में ध्यान के स्वरूपादि की विस्तृत चर्चा है, अतः इसे ध्यान के स्वरूप - विवेचन सम्बन्धी-ग्रन्थ कहा जा सकता है। दूसरा ग्रन्थ मूलतः ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है और इसमें महावीर से महाप्रज्ञ तक ध्यान की जो विधियाँ विकसित हुईं हैं, उनकी चर्चा है, जबकि मेरा यह शोध - ग्रन्थ मूलतः ध्यानशतक और उसकी हरिभद्रसूरिकृत टीका पर आधारित रहेगा और इस प्रकार यह एक ग्रन्थ आधारित अध्ययन होगा।
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जहाँ तक प्रथम शोध - ग्रन्थ के विषय का सम्बन्ध है, वह मुख्यतः ध्यान की सामान्य चर्चा करता है, जबकि दूसरा ग्रन्थ ध्यान के ऐतिहासिक विकास क्रम को बताता है, किन्तु ये दोनों ग्रन्थ ध्यान के सन्दर्भ में व्यापक दृष्टिकोण को लेकर ही चले, जबकि मेरा यह अध्ययन मूल ग्रन्थ और उसकी प्रथम हरिभद्र की टीका पर आधारित है। जहाँ तक इस मूल ग्रन्थ के प्रकाशित संस्करणों का प्रश्न है, मेरी जानकारी में हिन्दी अनुवाद सहित इसका प्रथम प्रकाशन वीर सेवा मंदिर, दरियागंज, दिल्ली से हुआ था, तत्पश्चात् गुजराती अनुवाद सहित इसका द्वितीय प्रकाशन दिव्यदर्शन कार्यालय, कालूपुर, अहमदाबाद से हुआ है। इसका तृतीय प्रकाशन सन्मार्ग प्रकाशन, अहमदाबाद से सम्पादक श्रीमद्विजयकीर्त्तियशसूरि द्वारा हुआ है, जो हरिभद्र की संस्कृत टीका सहित है ।
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