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आवश्यकवृत्ति के अन्तर्गत उस पर सविस्तार टीका लिखी है। डॉ. सागरमल जैन भी इसका समर्थन करते हुए अपने ध्यानशतक की भूमिका में लिखते हैं
झाणज्झयण अपरनाम ध्यानशतक का रचनाकाल ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और ईस्वी सन् के पूर्व हो सकता है। फिर भी, मेरी दृष्टि में इसे जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की रचना होने के कारण ईस्वी सन् की सातवीं शती की रचना मानना अधिक उपयुक्त है। टीकाकार हरिभद्र का परिचय -
'बहुरत्ना वसुन्धरा'- प्रस्तुत उक्ति भारतवर्ष के लिए यथार्थ सिद्ध होती है। इस पवित्र-पावन भूमि पर ऐसे धीर, वीर और गम्भीर महापुरुषों की कमी न थी, न है और न ही रहेगी। ऐसे महान् पुरुष अपने पराक्रम, अपनी साधना तथा अपनी प्रज्ञा के माध्यम से स्वकल्याण में तो रत रहते ही हैं, साथ-ही-साथ सामान्यजन को भी लाभान्वित करते हैं। संसार के कल्याण के लिए, प्राणीमात्र की सेवा के लिए और उत्कृष्ट मानवता के निर्माण के लिए वे अपने जीवन का बलिदान देकर समग्र संसार में सदा-सदा के लिए सम्माननीय एवं आदरणीय बन जाते हैं। ऐसे महान् पुरुषों की पंक्ति में अग्रणी स्थान प्राप्त कर चुके हैं, असाधारण व्यक्तित्व के धनी- आचार्य हरिभद्रसूरि ।
जैन-परम्परा में हरिभद्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं, लेकिन सबसे प्राचीन हरिभद्रसूरि ‘याकिनी महत्तरा सुनू' के नाम से प्रसिद्ध हैं। दूसरे, इनको भवविरहसूरि के नाम से भी जाना जाता है। यह हरिभद्रसूरि ही प्रस्तुत कृति के टीकाकार हैं। आचार्य हरिभद्र के जीवन के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त कराने वाले ग्रन्थों में प्राचीनतम ग्रन्थ भद्रेश्वर की, 'कहावली' है, जो अब तक अप्रकाशित है। 'कहावली' नामक यह ग्रन्थ प्राकृ त-भाषा में लिखा गया था। इसका रचनाकाल निश्चित नहीं है, फिर भी इतिहासज्ञों ने विचार-विमर्श के पश्चात् इसे विक्रम की बारहवीं शताब्दी के लगभग की रचना माना है। इसके अन्तर्गत आचार्य हरिभद्र के जन्मस्थान का नाम 'पिवंगुई बंभपुणी' लिखा गया था, जबकि अन्य ग्रन्थों के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि उनका जन्मस्थल 'चित्तौड़-चित्रकूट' रहा है।
61 जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति, भाग 7, डॉ सागरमल जैन, पृ. 43. 62 कहावली,, कर्ता- भद्रेश्वरसूरि (अमुद्रित). ७ पिवंगुईए बंभपुणीए, कहावली,, खण्ड- 2, पत्र- 300.
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