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उपसंहार
भारत के सभी प्रमुख धर्मों का मुख्य लक्ष्य चेतना की निर्विकल्प-अवस्था को प्राप्त करना है।
इस चेतना की निर्विकल्प-अवस्था को समाधि भी कहा गया है। यह निर्विकल्प-अवस्था ध्यान के माध्यम से ही संभव है, अतः सभी भारतीय धर्मों और दर्शनों में ध्यान-साधना को एक प्रमुख स्थान दिया गया है, क्योंकि ध्यान का लक्ष्य चित्त की विकल्प-शून्यता ही है। कहीं ध्यान और समाधि को अलग-अलग करते हुए ध्यान को चित्त की एकाग्रता और समाधि को चित्त की निर्विकल्पता या चित्तवृत्ति की शून्यता माना गया है।
यही कारण है कि सभी भारतीय-धर्मों में ध्यान-साधना को एक प्रमुख स्थान दिया गया है। जैन धर्म भी उसका अपवाद नहीं है। उसके अनुसार, मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति का अन्तिम कारण शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरणों की साधना है। जैन धर्म में यद्यपि ध्यान का विवेचन अनेक आगमों में यत्र-तत्र बिखरा हुआ मिलता है, किन्तु ध्यान-साधना पर एक सुनियोजित प्रथम एवं प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में ध्यानशतक (ध्यानाध्ययन) ही मिलता है। जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि यह ग्रन्थ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा विक्रम की छठवीं शताब्दी में लिखा गया है। इस ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विषय में हमने प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में विस्तार से चर्चा की। . .
इस ग्रन्थ के पश्चात् आगमिक-व्याख्याओं में एवं तत्त्वार्थसूत्र की श्वेताम्बर और दिगम्बर-टीकाओं में ध्यान का विवेचन हुआ है, किन्तु इसके बावजूद भी ध्यान-सम्बन्धी कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ हमारी जानकारी में नहीं है। ध्यान के सन्दर्भ में विस्तार से चर्चा करने वाले ग्रन्थों में दिगम्बर-परम्परा के आचार्य शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव और श्वेताम्बर-परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र का योगशास्त्र प्रमुख है, किन्तु यह स्पष्ट है कि इन दोनों ग्रन्थों की अपेक्षा ध्यानशतक न केवल प्राचीन है, अपितु अन्य परम्पराओं के प्रभाव से भी प्रायः मुक्त है। जहाँ ज्ञानार्णव और उसके बाद
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