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जैनागमानुसार मुक्तावस्था से पूर्व चौदहवें गुणस्थान में अयोगी-दशा वृत्ति निरोध है। यही शुक्लध्यान की सर्वश्रेष्ठ तथा उत्कृष्ट दशा है। वास्तविकता तो यह है कि यहाँ समाधि के लिए भी प्रयत्न नहीं होता है।
महर्षि पतंजलिकृत योगसूत्र में योगांग के रुप में जिस समाधि का वर्णन किया है, वह तो शुक्लध्यान के प्रारंभिक-स्तर में ही समाहित हो जाती है। ध्यान तथा समाधि में जो भेद है वह भी शुक्लध्यान के प्रथम एवं द्वितीय भेद के अन्तर्गत ही आते हैं, अतः जैनदृष्टि के अनुसार ध्यान ही योग का दूसरा रुप है और उसकी सर्वोत्कृष्टता शुक्लध्यान में है। यदि अष्टांगयोग के जैनागमानुसारी इस संक्षिप्त स्वरुप पर एकाग्रता से अवलोकन करें, तो यह प्रतीत होता है कि योग के विषय में दोनों दर्शन एक-दूसरे के अतिनिकट हैं। इस विषय में शाब्दिक तथा पारिभाषिकभिन्नता होने पर भी एक आन्तरिक-समानता दिखाई देती है।
____ महर्षि पतंजलि ने अविद्यादि क्लेशों के नाश तथा समाधि की प्राप्ति हेतु सबसे प्रथम स्थान तप को दिया है। जैन-शास्त्रों में भी आत्मविशुद्धि हेतु तप को प्रधानता दी गई है। योग के अंगरुप अंतरंग तथा बहिरंग जितने भी साधन हैं, वे सभी जैनदर्शन के धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान में समाहित हैं। जैनागमों में ध्यानयोग तथा महर्षि पतंजलि का समाधियोग -दोनों एक-दूसरे के अधिक निकट तथा परस्पर परिचित प्रतीत होते हैं।
तांत्रिकसाधना और जैनध्यानसाधना -
जैन ध्यान-साधना पर तंत्र का प्रभाव अतिप्राचीनकाल से ही देखा जाता है। पातंजल 'योगसूत्र' की योग-साधना और जैन-योगसाधना के तुलनात्मक अध्ययन में हमने देखा कि जैन–परम्परा में प्राणायाम की साधना को कोई महत्त्व नहीं दिया गया, किन्तु परवर्तीकाल में तांत्रिक-साधना के प्रभाव से हम देखते हैं कि जैनपरम्परा में न केवल प्राणायाम को स्थान मिला, किन्तु उसमें ईडा, पिंगला और सुषुम्ना के जागरण और षट्चक्र-भेदन की बात भी आ गई।
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