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________________ 437 7. ध्यान - योग के अन्य अंगों की दृष्टि से देखा जाए, तो लगता है कि यह ध्यान सबसे महत्त्वपूर्ण है। चित्त की अनवरत एवं अबाधित रुप से ध्येय वस्तु पर एकाग्रता हो जाना ध्यान है।196 ध्यान से उत्पन्न होने वाली एकाग्रता से आत्मोत्कर्ष में अपूर्व प्रगति होती है। इसी हेतु जैन-सिद्धान्तों में ध्यान का विस्तारपूर्वक विश्लेषण हुआ है, साथ ही उसकी निजस्वरुप के भान, आत्मोन्नति एवं सर्वज्ञता की भूमिका से निकटता दर्शायी गई है, अतः आठ योगांगों में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। शास्त्रों में ध्यान को चार विभागों में विभाजित किया गया है197 – .. (1) आर्तध्यान (2) रौद्रध्यान (3) धर्मध्यान और (4) शुक्लध्यान। इनमें भी प्रत्येक ध्यान के चार-चार उपभेद भी हैं। प्रथम दो आर्त्त और रौद्र ध्यान संसार की परम्परा को बढ़ाने वाले होने से दुर्ध्यान माने गए हैं और ये साधक के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। अन्तिम के दो ध्यान तो मोक्ष मार्ग के हेतुरुप होने से सुध्यान माने गए हैं। ये दोनों ध्यान ग्रहण करने योग्य हैं।198 1. आर्तध्यान – जिसमें मात्र दुःख का चिन्तन-मनन हो, वह आर्तध्यान है। 2. रौद्रध्यान – निष्ठुर तथा क्रूर प्रवृत्ति वाले प्राणी के व्यवहार को रौद्ररुप माना गया है। उसका ध्यान रौद्रध्यान है। 3. धर्मध्यान - जिसकी चित्तवृत्तियाँ मात्र धर्म-साधना में जुड़ी हुई रहती हैं, उसे धर्मध्यान कहा जाता है। 19 तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् (योग 3/2) 197 'चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तंजहा - अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे। (व्याख्याप्रज्ञप्तिशत 25 उद्दे, 7 सू. 903) 198 'तेय विसेसेण सुभासवादओऽणुत्तरामरसुहंच। दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं ।। -ध्यानशतक श्लोक 95 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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