SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2. पूरक पूरक है। 190 - 3. कुम्भक 191 192 प्राणायाम है। नियमित प्राणायाम के अभ्यास से भीतर में धारणा की योग्यता बढ़ती है । यहाँ एक बात समझने योग्य है कि जैन - परम्परा में हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र एवं शुभचन्द्रगणिकृत ज्ञानार्णव में प्राणायाम के संदर्भ में काफी विस्तृत विश्लेषण है, किन्तु मूलागमों में प्राणायाम से संबंधित कोई ठोस वर्णन नहीं मिलता है। इससे यहाँ यह प्रतीत होता है कि प्राचीन जैनदृष्टि इस विषय में तटस्थ रही हो। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जैन - साधना पद्धति में प्राणायाम का वर्णन तो प्राप्त है, किन्तु उसे मुक्ति की साधना में जरुरी नहीं माना गया हो । 190 आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में 91 एवं उपाध्याय यशोविजय के 'जैनदृष्ट्या परीक्षितं पतंजलियोगदर्शन 192 नामक ग्रंथ में मोक्ष - साधना के लिए प्राणायाम को अस्वीकार किया गया है। उनका कहना है कि प्राणायाम से मन शांत नहीं होता, अपितु क्षुब्ध हो जाता है। शारीरिक दृष्टि से चाहे प्राणायाम उपयोगी सिद्ध हो सकता है, परन्तु मानसिक दृष्टि से उपयोगी नहीं है। बाहर के वायु को यत्नपूर्वक नासारन्ध्र के द्वारा भीतर खींचना -- फिर भी, आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग में श्वासों की जो प्रणाली बताई है, वह श्वासप्रेक्षा सदृश लगती है। जैनागमों के अन्तर्गत जो दृष्टिवादरुप बारहवां अंग है, उसमें विभंगपूर्व के बारहवें विभाग में जो प्राणवायु पूर्व के नाम से उद्धृत हैं, जिसमें प्राण, अपान का सविस्तार उल्लेख रहा था, इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जैन-मनीषी प्राणायाम से भलिभाँति परिचित थे, फिर भी मोक्षमार्ग में उसे आवश्यक नहीं मानते थे । योगसूत्र - 2 / 9 योगशास्त्र - 6.4 / 5.5 'जैनदृष्टया परीक्षितं पतंजलि योगदर्शनम् - उ. यशोविजयकृत 2.55 अध्यात्मसार से उद्धृत Jain Education International 435 आकृष्ट वायु की नाभिप्रदेश में स्थापना करना कुम्भक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy