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पातंजल-योगदर्शन के अनुसार, अन्तिम तीन अंगों की 'संयम' संज्ञा है, अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि -ये तीनों अंग संयम कहलाते हैं।179
यमादि पांच अंग असम्प्रज्ञात समाधि के कारण हैं और धारणादि सम्प्रज्ञात-समाधि के अंतरंग कारण हैं।
इन आठों अंगों के स्वरुप, फलश्रुति एवं सम्यक् अनुष्ठान से मिलने वाली लब्धियों का 'पातंजलदर्शन' में सविस्तार तथा व्यवस्थित रुप से वर्णन किया गया
आध्यात्मिक-जगत् के आधारस्तंभ तथा भारतीय-दर्शनों में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाले जैनधर्म में इन योगांगों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है या नहीं ? और यदि है, तो उसका आगम-निहित स्वरुप क्या है? जैनागमों में पातंजल-दर्शन के इन आठ अंगों का स्वरुप क्या है ? इनके अनुसार दोनों के मूलभूत योगांगों में कोई भेद है या नहीं ? यह जानना आवश्यक है।
इन आठ अंगों का जैन-आगमों में कैसा वर्णन है, इसका यहाँ संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
1. यम :
पातंजल योगदर्शन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांचों को 'यम' संज्ञा प्राप्त है, किन्तु उसमें उन यमों को व्रत भी कहा गया है।
पातंजल योगसूत्र और जैनागमों में इनके स्वरुप की कुछ चर्चा भी मिलती है। दोनों परम्पराओं में इनके स्वरुप को लेकर अधिक अन्तर नहीं है।
पातंजल योगसूत्र में पहले एवं दूसरे यम को क्रमशः अहिंसा और सत्य कहा गया है। जैनागमों के अन्तर्गत हिंसा से विरति या निवृत्ति एवं मृषावाद के त्याग का निर्देश किया गया है। दोनों में इनके स्वरुप में किसी प्रकार का मतभेद नहीं है।
179 'त्रयमेकत्र संयमः वही 3-4
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