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मुक्ति का प्रगटीकरण है । संयुक्तनिकाय में स्पष्ट रूप से लिखा है कि तृष्णा के नष्ट हो जाने पर सब बन्धन स्वयं ही कट जाते हैं। 165 जैन साधना का लक्ष्य मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों का निरोध करना है, जिसे आगमिक भाषा में योग-निरोध कहा गया है। इस योग निरोध के द्वारा मन को अमन बना देना है । चित्तवृत्तियों की निर्विकल्पदशा प्राप्त करना है, जिसे वीतरागदशा भी कहा जा सकता है।
डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में - "समग्र भारतीय साधनाओं का मुख्य लक्ष्य चेतना की निर्विकल्प – अवस्था को प्राप्त करना है। योगसूत्र की अपेक्षा से योगसाधना का लक्ष्य चित्तवृत्ति का निरोध है । बौद्धसाधना में चित्त की निर्विकल्प दशा को ही निर्वाण के रुप में परिभाषित किया गया है। उसमें माना गया है क़ि तृष्णा विकल्पजन्य है। विकल्पों के निरोध के बिना तृष्णा का उच्छेद सम्भव नहीं है। उसी प्रकार, जैन- परम्परा में भी यह कहा गया है कि योगनिरोध ही साधना का लक्ष्य है । यह योगनिरोध भी चित्तवृत्ति की निर्विकल्पता ही है। इसे समता या वीतरागता के रूप में भी माना गया है ।"
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यहाँ निर्विकल्पता को थोड़ा विस्तार से समझना है। परमसुख - विपश्यना नामक पुस्तक में कन्हैयालालजी लोढ़ा ने निर्विकल्पता को दो विभागों में बांटा है। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं
जड़तारुप निःस्थिति
(प्रगाढ़-निद्रा, मूर्च्छा, बेहोशी आदि जो साधना के क्षेत्र में अनुपयोगी हैं)
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निर्विकल्पता
निर्विकल्प -स्थिति
165 तहाय विप्पहानेन सव्वं छिन्दति बंधनं ।। - संयुक्तनिकाय - 1/1/65 'परमसुख - विपश्यना' कन्हैयालाल लोढ़ा, पुस्तक की भूमिका, पृ. 1
चिन्मयतारुप निःस्थिति
( किसी अभ्यास द्वारा प्राप्त निर्विकल्प {समाधिस्थ} होने से साधक को "मैं आनन्दित हूं" यह भान होता है, इसमें भाव की भूमिका होती है ।
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निर्विकल्प-बोध
(आत्मसजगता या अप्रमत्तता की स्थिति है।)
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