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________________ 409 विशिष्ट गुणों के सागर - आपश्री के ओजस्वी व्यक्तित्व में अनेकानेक गुण निहित हैं, उसमें मुख्य रुप से गुरुभक्ति, श्रुतभक्ति, संघभक्ति, शासन-प्रभावना, अध्यात्मरस-निमग्नता, धैर्यतागंभीरता, विनयशीलता, सरलता, त्याग-तपस्या-वैराग्य, लघुता और गुणानुरागता आदि हैं। अध्यात्मसार के अन्तिम अधिकार के पन्द्रहवें श्लोक में आपने मनोहर कल्पना द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया। 128 गुणानुरागता, विनयशीलता, लघुता का उदाहरण हमें उपाध्यायश्री द्वारा विरचित 'आनंदघन-अष्टापदी' में मिलता है। 129 उनकी उदारवृत्ति के दर्शन हमें समन्तभद्रकृत अष्टसहस्री पर, पतंजलिकृत योगसूत्र पर, काव्यप्रकाश पर, एवं न्यायसिद्धान्त-मंजरी पर उनके द्वारा लिखी गई वृत्तियों में होता है। उनमें आपने योगवासिष्ठ, उपनिषद्, गीता से भी कुछ उद्धरण दिए हैं। श्रुतभक्ति के रुप में आपने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। उपाध्यायश्री बचपन से ही त्याग-वैराग्य-तपस्या में लीन थे -इस बात की पुष्टि 'सुजसवेलीमास' से होती है। 130 अध्यात्मरस-निमग्नता के संदर्भ में तो हम निःशंक होकर यह कह सकते हैं कि अनुभूति के बिना 'अध्यात्मसार' अध्यात्मोपनिषद् जैसे गूढ़ रहस्यमय ग्रन्थों का प्रणयन शक्य नहीं था।131 साहित्य-परिचय - प्रायः प्राचीन विद्वान यशकीर्ति की प्राप्ति से अनाकांक्ष होकर स्व–पर कल्याण के उद्देश्य से ग्रन्थों की रचना करते थे। उन्हीं विद्वानों में एक हैं -उपाध्याय यशोविजयजी। उन्होंने अपने जीवन-काल में शताधिक ग्रन्थों का सर्जन किया। दुर्भाग्य से वर्तमान में उनके सम्पूर्ण ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, 128 यत्कीर्तिस्फूर्तिगानाबहितसुखधूवृन्दकोलाहलेन। प्रक्षुष्धस्वर्गसिंधोः पतितजलभरैः क्षालितः शैत्यमेति।। अश्रान्तभ्रान्तकान्तग्रहगण किरणैस्तापवान् स्वर्णशैलो। भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजयबुधाः सज्जनवातधुर्याः ।। - अध्यात्मसार, 21/15 129 जसविजय कहे सुनो आनंदघन हम तुम मिले हजुर। जस कहे सोहि आनंदघन पावत अंतरज्योत जगावे। आनंद की गत आनंदघन जाने ऐसीदशा जब प्रगटे, चित्त अंतर सो ही आनंदघन पिछाने ऐ ही आज आनंद भयो मेरे तेरो मुख नीरख रोम-रोम शीतल भया अंगो अंग।' - उ. यशोविजयकृत आनंदघन अष्टपदी 130 सुजसवेलीभास- 1/8 31 माहरे तो गुरूचरणपसाये अनुभव दिलमांही पेठो। ऋद्धिवृद्धि प्रगटी घरमा आतमरति हुई बैठो रे ....श्रीपालरास For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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