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________________ 389 तेईसवें सर्ग का नाम 'आर्तध्यान' है। इस सर्ग में ध्यानसमता का हेतु, शुभ- ध्यान का फल, अशुभ-ध्यान के परिणाम, ध्यान के भेद, आर्तध्यान के भेद तथा उसके स्वरुप और परिणाम का उल्लेख किया गया है। यह सर्ग इकतालीस श्लोक-परिमाण वाला है। चौबीसवें सर्ग में रौद्रध्यान, उसके स्वरुप, भेद और उसके परिणाम का वर्णन किया गया है। पच्चीसवें सर्ग से लेकर अड़तीसवें सर्ग तक धर्मध्यान के सन्दर्भ में उल्लेख किया गया है। अब आगे कौनसे-कौनसे सर्ग का क्या-क्या नाम है, कितने श्लोक -परिमाण हैं ? उनकी विषय-वस्तु क्या है ? आदि की सूची ज्ञानार्णव ग्रन्थ के आधार पर इस प्रकार है - । सर्ग का नाम सर्ग विषय-वस्तु सम्पूर्ण पृ.संख्या सख श्लोकांक श्लोक परिमाण 25 | ध्यानविरुद्धस्थान 35 26 | प्राणायाम 141 1 27 14 प्रत्याहार 28 | सवीर्यध्यान 29 | शुद्धोपयोगविचार 38 104 30 | आज्ञाविचय 31 | अपायविचय 32 | विपाकविचय | 33 | संस्थानविचय PIRI धर्मध्यान की प्रंशसा, ध्याता के गुण, प्रभावना, फल, ध्यान हेतु 1267-1301 | 437-445 स्थान आदि ध्यान हेतु स्थान, आसन, दिशा, योग्यता, प्राणायाम के स्वरुप, | 1302-1455 | 447-486 फलादि प्रत्याहार का स्वरुप, प्राणायाम प्रत्याहार से कनिष्ठ 1456-1469 1488-492 | ध्यानाभिमुख मुनि के विचार, ध्यान, आत्मा ध्येय का स्वरुप फलादि | 1470-1512 | 493-5051 आत्मा के 3 प्रकार, परमात्मा का स्वरुप, फल, बंधमोक्ष का कारण, 1513-1616 | 506-535 अज्ञानी, आत्मज्ञानी की तुलना . योगी के चित्त की चंचलता का कारण, धर्मध्यान की आवश्यकता, | 1617-1639 1 536-542 धर्मध्यान के भेद, आज्ञाविचय का स्वरुप, श्रुतज्ञान का स्वरुप अपायविचय ध्यान का स्वरुप 1640-1657 ] 543-548 | विपाकविचय ध्यान का स्वरुप 1658-1688 549-558 | लोक, नरक,मध्यलोक का स्वरुप, नारकी के मनोगत विचार, नरक | 1689-1876 | 559-604 की भयानकता, देवलोकसुख और संस्थानविचय-ध्यान ध्यान के4 भेद, धारणा, पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी, तत्त्व | 1877-1909 | 605-613 रुपवती और ध्यान का फल | पदस्थध्यान का लक्षण, फल, मंत्रराज का स्वरुप, फल, विविध | 1910-2079 | 614-645 विद्याओं के फल, ध्यानफलादि सर्वज्ञ का स्वरुप, उनके ध्यान का फल 2080-2111 1646-657 रागी के ध्यान का प्रकार, सत् असत् ध्यान के परिणाम, रुपातीत | 2112-2139 | 658-666 ध्यान का स्वरुप एवं फल मनोरोध का उपदेश, शुक्लध्यान और उसके अधिकारी, धर्मध्यान का | 2140-2230 | 668-675 फल ___ 179 34 | पिण्डस्थध्यान | 35 | पदस्थध्यान 117 36 | रुपस्थध्यान रुपातीत 37 | 38 | धर्मध्यानफल 69 साम्यश्री तिनिःशक...........श्रुतधरैर्ध्यावर्णितानिस्फुटम्।। - वही, 23 सर्ग, श्लोक 1180-1222, पृ. 409–422 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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