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समन्वयशीलता का द्योतक है। इसमें पद्यों के साथ-साथ कहीं-कहीं गद्यात्मक शैली का भी सम्मिश्रण दिखाई देता है।
ग्रन्थ की विषय-वस्तु का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
सर्वप्रथम पीठिका में मंगलाचरण के रुप में आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ और वर्धमान परमात्मा का स्मरण एवं स्तुति करके उसके पश्चात् ध्यान-सिद्धि हेतु इन्द्रभूति को नमन किया गया है। आगे समन्तभद्र, देवनन्दी, जिनसेन, अकलंकभट्ट, आदि के कीर्तन एवं अभिवादन के साथ ही ग्रन्थ-सृजन हेतु को प्रकट किया गया है। ग्रन्थ की भूमिका में ग्रन्थ-सृजन के गुणावगुणों पर विचार-विमर्श किया गया
- दूसरे सर्ग का विषय 'द्वादश भावना है। यह सर्ग 193 श्लोक-परिमाण वाला है। इस सर्ग के अन्तर्गत द्वादश भावनाओं का महत्त्व, आस्रव, संवर, निर्जरा का स्वरुप, उनके भेद, प्रभेद और उनके फल का निरुपण किया गया है। तत्पश्चात्, धर्म की श्रेष्ठता, लोक तथा रत्नत्रय का वर्णन करके अन्त में मोक्ष की दुर्लभता और द्वादश भावनाओं की व्याख्या की गई है। 2
प्रस्तुत ग्रन्थ के तीसरे सर्ग की विषय-वस्तु 'ध्यानलक्षण' है। यह सर्ग मात्र छत्तीस श्लोक-परिमाण है। इसमें मनुष्य पर्याय की दुर्लभता तथा धर्म, अर्थ काम और मोक्ष - इन चार पुरुषार्थों का वर्णन है, साथ ही मोक्ष का स्वरुप और उसकी प्राप्ति के उपाय, ध्यान की सामग्री, ध्यान के तीन प्रकार तथा उनके फल का वर्णन किया गया है। 3 चौथे सर्ग का नाम 'ध्यानगुणदोष' है। इस सर्ग का साठ श्लोक- परिमाण है। इसमें ध्यान के भेद एवं ध्याता के गुणों का उल्लेख है, साथ ही यह बताया गया है कि साधक घर में रहकर ध्यानसिद्धि नहीं कर सकता। मिथ्यात्व से युक्त साधक भी ध्यानसिद्धि नहीं कर सकता है। उसके बाद,
" ज्ञानलक्ष्मीघनाश्लेष ......... इह सुकृती मुहयति जनः ।। - ज्ञानार्णव, 1सर्ग, श्लोक 1 और 49, पृ. 4-22 62 संगैः किं न विषाद्यते वपुरिदं .........योगीश्वराणां मुदे ।। - वही, 2सर्ग, श्लोक 50-246, पृ. 23-85 63 अस्मिन्ननादिसंसारे दुरन्तेसारवर्जिते...... शिवपदमयानन्दनिलयम्। - वही, उसर्ग, श्लोक 247-283 पृ. 86-96
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