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________________ गाथाओं का अनुवाद भी असंगत हो गया है। 122 यहाँ हम होइ - होज्न, भूदोव-भूओव, ट्ठियो-ठिओ, लाहं-लाभ – ऐसे कुछ पाठभेदों को छोड़कर उनमें अन्य महत्त्वपूर्ण मतभेद हैं, उनका तुलनात्मक विवेचन करेंगे। ध्यानशतक और आदिपुराण का तुलनात्मक अध्ययन वीरसेन स्वामी के शिष्य जिनसेनाचार्य ने नौवीं शती में महापुराण की रचना की थी। यह एक पौराणिक ग्रन्थ है । यह महापुराण दो भागों में विभक्त है 1. आदिपुराण और 2. उत्तरपुराण | 'जैनेन्द्र- सिद्धान्तकोश के अनुसार आदिपुराण में भगवान् ऋषभदेव तथा भरत एवं बाहुबली का चरित्र चित्रित किया गया है। इसमें सैतालीस पर्व तथा पन्द्रह हजार श्लोक हैं। उत्तरपुराण में शेष तेईस तीर्थंकरों का उल्लेख है। इसमें उन्तीस पर्व और आठ हजार एक सौ श्लोक हैं। ये दोनों मिलकर महापुराण भी कहलाते हैं । 123 सैंतालीस पर्व वाले आदिपुराण के प्रथम बयालीस पर्व तथा तैतालीसवें पर्व के मात्र तीन श्लोक जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं, शेष पर्वों के 1620 श्लोक - परिमाण भाग की रचना उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने की थी । 124 333 आदिपुराण के इक्कीसवें पर्व के अन्तर्गत श्रेणिक द्वारा पूछे जाने पर गौतमस्वामी के द्वारा ध्यान का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है, जो 'ध्यानशतक' की विषय-वस्तु से काफी प्रभावित प्रतीत होता है। इन दोनों ग्रन्थों 122 जैसे पृ. 67 गाथा 21 एवं 22; पृ 68, गाथा 24 एवं 27 पृ. 71 गाथा 35-37 पृ. 73, गाथा 48 का पाठभेद सम्भवतः प्रतिलेखक की असावधानी से हुआ है ध्यानशतक की गाथा 58 और 57 के क्रमशः उत्तराध के मेल से यह गाथा बनी है। इस अवस्था में वह प्रकरण से सर्वथा असम्बद्ध हो गई है। ध्यानशतक के अन्तर्गत गाथा 56-57 में संसार - समुद्र का स्वरूप दिखलाया गया है। तथा आगे वहाँ गाथा 58-59 में उक्त संसार - समुद्र से पार करा देने वाली नौका का स्वरूप प्रगट किया गया है। वहाँ गाथा 58 के उत्तरार्ध में उपयुक्त णाणमयकण्णधारं (ज्ञानरूप कर्णधार से संचालित); यह विशेषण वहाँ चारित्ररूप महती नौका का रहा है, वह धवला में हुए इस पाठभेद के कारण संसार - समुद्र का विशेषण बन गया है। यह वहाँ सोचनीय असंगति हो गई है। 123 ' प्रस्तुत संदर्भ 'जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश भाग-33, पृ. 290 'आदिपुराण, सं. डॉ. पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, न्यूदिल्ली, भाग-1, पुस्तक की प्रस्तावना से उद्धृत, पृ. 39 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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