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करते हुए उसमें कैसी-कैसी एवं क्या-क्या विशेषताएँ होना चाहिए, इसके लिए अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषणों का उपयोग किया गया है। इस संदर्भ में उन्होंने 'एत्थ गाहा या गाहाओ' कहकर ध्यानशतक की निम्नांकित गाथाओं को लिया है – 2, 30-34, 35-36, 37, 38, 39-40 41-43109 साथ ही साथ कुछ गाथाएँ भगवतीआराधना से भी ली गई हैं।
तत्पश्चात्, क्रमशः ध्येय के उल्लेख में ध्येय-ध्यान के योग्य अनेक विशेषणों से अलंकृत अरहन्त एवं सिद्ध द्वारा प्ररूपित नौ पदार्थों के संबंध में चर्चा की गई है।10 आगे, ध्यान की प्ररूपणा में धर्म और शुक्ल -इन दो भेदों का ही वर्णन है, क्योंकि तपःकर्म-प्रकरण के कारण शायद आर्त और रौद्र को स्वीकार नहीं किया है।11 'धवलाटीका' में धर्मध्यान को ध्येयरूप मानते हुए चार प्रकार भी कहे गए हैं - आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानविचय। ग्रन्थों में आज्ञा, आगम, सिद्धान्त, जिनवचन, जिनवाणी -इन सभी शब्दों का अर्थ एक है और इस प्रकार आज्ञानुसार प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाणों के विषयभूत पदार्थों का जो चिन्तन-मनन किया जाता है, उसको आज्ञाविचय कहते हैं, इस प्रसंग में यहाँ ‘एत्थ गाहाओ' कहकर ध्यानशतक की 45-49 गाथाएं उद्धृत की गई हैं।112 आगे की एक गाथा 38 है जो मूलाचार 5-202 में भी मिलती है।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग द्वारा जन्म, जरा और मृत्यु की वेदना का अनुभव करते-करते तद्जन्य अपाय का चिन्तन-मनन अपायविचय-धर्मध्यान कहा गया है। इस सन्दर्भ में यहाँ ध्यानशतक की पचासवीं गाथा ली गई है।113 साथ ही पाठ-भेद को लिए हुए 'मूलाचार' की भी एक गाथा सम्मिलित है, जिसका
109 धवला में इनकी क्रमिक संख्या इस प्रकार है -12, 14-15, 16-17-18,-19, 20-21 और 23-27
-पु. 13, पृ. 1. 64-68 110 धवला, पु. 13, पृ. 67-70 II हेमचन्द्रसूरि विरचित 'योगशास्त्र में भी इन दो दुर्व्यानों को ध्यान में सम्मिलित नहीं किया गया है। - योगशास्त्र 4/115 112 धवला में इनकी क्रमिक संख्या 33-37 है -पृ. 71 13 धवला, में इनकी क्रमिक संख्या 39 है -पृ. 72'
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