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भगवती, ध्यानशतक, हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि ग्रन्थों एवं उनकी टीकाओं में इन भेदों का निर्देश नहीं किया गया है। शास्त्रों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि पिण्डस्थ, पदस्थ आदि भेदों का उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य योगीन्दुविरचित योगाचार (जिसका काल ईसा की छठवीं शताब्दी माना जाता है) में मिलता है । तत्पश्चात्, इन भेदों का उल्लेख आचार्य शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव (ग्यारहवीं शती) तथा आचार्य हेमचन्द्रसूरिविरचित योगशास्त्र ( 12वीं - 13वीं) में मिलता है। 211 डॉ. सागरमल जैन आदि विद्वानों ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि धर्मध्यान के पिण्डस्थ आदि चार अवस्थाएँ तथा पार्थिवी आदि पाँच धारणाएँ आगमकालीन नहीं हैं। ये मुख्यतः हिन्दू तान्त्रिक - परम्परा के प्रभाव से जैन - परम्परा में अवतरित की गई है। इनका सर्वप्रथम उल्लेख हमें घेरण्डसंहिता में मिलता है, वहीं से दिगम्बर जैनाचार्य शुभचन्द्र ने उन्हें ग्रहण किया है और आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में या तो सीधे घेरण्डसंहिता से, या फिर शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव से उन्हें उद्धृत किया है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि पिण्डस्थादि धर्मध्यान के चार भेद और पिण्डस्थ-ध्यान की पार्थिवी आदि पाँच धारणाएँ जैन- परम्परा में विकसित न होकर हिन्दू - परम्परा में ही विकसित हुई हैं ।
डॉ. सागरमल जैन ने यह भी सूचित किया है कि पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चारों प्रकार के ध्यान बौद्धों की तान्त्रिक - परम्परा में भी रहे हैं, अतः इनका विकास हिन्दू या बौद्ध-तान्त्रिक परम्परा में ही हुआ है, वहीं से वे जैन परम्परा में प्रविष्ट हुए हैं ।
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' प्रस्तुत संदर्भ 'जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन' पुस्तक से उद्धृत, पृ.201
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