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ज्ञानार्णव, स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका203, श्रावकाचार-संग्रह 204 आदि ग्रन्थों में भी इसी बात का समर्थन मिलता है।
"स्वाध्यायसूत्रानुसार' में वारूणी धारणा जल तत्त्व से संबंधित है। साधक की चिन्तन-धारा इस प्रकार होती है -गगन में अमृततुल्य बरसात करनेवाले घनघोर बादल आच्छादित हैं। उनमें चन्द्रबिन्दुयुक्त वरूण बीज '_' अंकित है। उसमें से निरन्तर निकलते अमृततुल्य जल से सम्पूर्ण गगन परिपूरित हो गया है और पूर्व धारणा में पवन के द्वारा जले हुए शरीर और कर्मों की जो भस्म उड़ा दी गई थी, वह इस जल से धुलकर साफ हो रही है।205
5. तत्त्वभू (तत्त्वरूपवती) -
उपर्युक्त चारों धारणाओं के चिन्तन-मनन के पश्चात् साधक यह कल्पना करे कि मेरी आत्मा भी शुद्ध स्वरूप वाली है, अतिशय-सम्पन्न है। विशुद्ध आत्मस्वरूप ही मेरा निजस्वरूप है। यह अनंत ज्ञान-दर्शनयुक्त है।
योगशास्त्र ज्ञानार्णव, श्रावकाचार-संग्रह आदि ग्रन्थों में लिखा है कि साधक का चिन्तन ऐसा होना चाहिए - मेरी देहातीत-अवस्था, अर्थात् मेरा आत्मतत्त्व सर्वज्ञ के समान सात धातु से रहित है और पूर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, धवल, निर्मल तथा पवित्र है। मेरी आत्मा निरंजन-निराकार है। समस्त
203 स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, पृ. 370-371 204 श्रावकाचारसंग्रह, भा.5, पृ. 520 205 स्वाध्यायसूत्र - 10/12, पृ. 266-267 206 सप्तधातु-विनाभूतं पूर्णेन्दु विशदद्युतिम् । सर्वज्ञकल्पमात्मानं शुद्धबुद्धिः स्मरेत् तत।।
ततः सिंहासनारूढं सर्वातिशयभासुरम्......कल्याणमहिमान्वितम् ।। – योगशास्त्र - 7/23-24 207 सातधातुविनिर्मुक्तं पूर्णचन्द्रामलत्विषम् । सर्वज्ञकल्पमात्मानं ततः स्मरति शुद्धधीः ।।
मृगेन्द्रविष्टरारूढं.............जिनसमयमहाम्भोधिपारं प्रयातैः ।। - ज्ञानार्णव - 34/28-32 208 श्रावकाचार-संग्रह, भाग-5, पृ. 519
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