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इसमें एक अन्य रूप से भी स्पष्ट किया गया है कि पुरुषाकृति रूप चौदह राजलोक का चिन्तन, अर्थात् अपने शरीर में तीन लोक के आकार का चिन्तन-मनन करना पिण्डस्थ-ध्यान है।131
'सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहद्वृत्ति' के अनुसार, अरिहंत-परमात्मा के स्वरूप का ध्यान पिण्डस्थ-प्रणिधान है।132 ..
'ध्यानस्तव'133 में लिखा गया है -"स्वच्छ स्फटिक के सदृश निर्मल, आदित्य के समान भास्वर, दूरस्थ आकाश-प्रदेश के लोकाग्र भाग में संस्थित, समस्त अतिशययुक्त, अष्टप्रातिहार्य समन्वित, भव्यजनों के लिए आनंदप्रद, विश्वज्ञ, सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा, नित्यानन्दस्वरूप, अनन्त आत्मगुणों से युक्त परमात्मा को अपने देहस्थ आत्मा से अभिन्न मानते हुए तथा शुद्ध ध्यानरूप अग्नि द्वारा समस्त कर्मों का दहन करते हुए परमात्मा का ध्यान पिण्डस्थ-ध्यान के रूप में समादृत है।134
ध्यानसार135 के अनुसार अर्हन्त आदि अक्षरों से युक्त नाभिकमल आदि के रूप में देह स्थानों में योगियों के ध्यान करने को पिण्डस्थ-ध्येय कहा है। स्वाध्यायसूत्रानुसार, जो पृथिव्यादि तत्त्वों, स्वयं के शरीर तथा आत्मप्रतीक आदि पिण्डों पर आधारित होता है, वह पिण्डस्थ है।136
पिण्डस्थ-ध्यान से साधक निर्लिप्त-निर्मुक्त हो जाता है, अर्थात् वह संसार के जाल से मुक्त हो जाता है। ध्यानामृत138 में लिखा है कि आत्मस्वरूप का चिन्तन करना पिण्डस्थ-ध्यान है।
131 अधो भागमधोलोकं मध्यांशं मध्यमं जगत् ... || - श्रावकाचार-संग्रह, भाग-2, गा.121-123, पृ. 457 132 'शरीरस्थस्य'-सिद्धहेमशब्दानुशासन-बृहद्वृत्ति।। - प्रस्तुत संदर्भ ध्यानविचार-सविवेचन पुस्तक से उद्धृत, पृ. 156 133 स्वच्छस्फटिकसंकाशव्यक्तादित्यादि तेजसम् । दूराकाशप्रदेशस्थं संपूर्णोदग्रविग्रहम् ।।
सर्वातिशयसंपूर्ण ............ पिण्डस्थध्यानमीडितम् ।। - ध्यानस्तव, 25,26,27,28 134 प्रस्तुत संदर्भ 'जैनधर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकासक्रम' पुस्तक से उद्धृत, पृ. 59 135 नाभिपद्मादिरूपेषु देहस्थानेषु योगिनाम्। __ अर्हमाद्यक्षरन्यासैः पिण्डस्थं ध्येयमुच्यते।। - ध्यानसार, श्लोक-117 136 पृथिव्यादि-भूत-स्वशरीरात्म प्रतीकादि-पिण्डाश्रितं पिण्डस्थम् ।। – स्वाध्यायसूत्र, अधि.10, सू.13 137 प्रस्तुत संदर्भ 'बातचीत :ध्यान/योग' पुस्तक से उद्धृत, पृ. 10 138 "पिण्डस्थ स्वात्म चिन्तनम्' - ध्यानामृत, धर्मालंकार से उद्धृत, पृ.189
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