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इसकी परीक्षा करके वैसी आज्ञा का पता लगाने के लिए मनोयोग लगाना आज्ञाविचय-धर्मध्यान है। 2. दोषों के स्वरूप और उनसे छुटकारा पाने के विचारार्थ मनोयोग लगाना अपायविचय--धर्मध्यान है। 3. अनुभव में आने वाले विपाकों में से कौन-कौनसा विपाक किस-किस कर्म का आभारी है तथा अमुक कर्म का अमुक विपाक सम्भव है -इसके विचारार्थ मनोयोग लगाना विपाकविचय-धर्मध्यान है। 4. लोकस्वरूप का विचार करने में मनोयोग लगाना संस्थानविचय-धर्मध्यान है। धर्मध्यान के स्वामियों के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में मतैक्य नहीं है। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार, उक्त दो सूत्रों में निर्दिष्ट सातवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में, तथा इस कथन से सूचित आठवें आदि बीच के तीन गुणस्थानों में अर्थात सातवें से बारहवें तक के छहों गुणस्थानों में धर्मध्यान संभव है। दिगम्बर-परम्परा में चौथे से सातवें तक के चार गुणस्थानों में ही धर्मध्यान की सम्भावना मान्य है। उसका तर्क यह है कि श्रेणी के आरंभ के पूर्व तक ही सम्यग्दृष्टि में धर्मध्यान संभव है और श्रेणी का आरम्भ आठवें गुणस्थान से होने के कारण आठवें आदि में यह ध्यान किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। 114
इस प्रकार, उपसंहार-रूप से हम यह कह सकते हैं कि जहाँ आर्त्त, रौद्र और शुक्लध्यान के सन्दर्भ में श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में मतैक्य है, वहाँ धर्मध्यान को लेकर दोनों परम्पराओं में मतभेद भी है। सामान्य रूप से चारों ध्यानों के स्वामियों की चर्चा को हम इस रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। आर्त्तध्यान पहले गुणस्थान से छठवें गुणस्थान तक पाया जाता है। रौद्रध्यान पहले गुणस्थान से पांचवें गुणस्थान तक के जीवों में पाया जाता है। धर्मध्यान श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होकर बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, जबकि दिगम्बर–परम्परा के अनुसार धर्मध्यान चतुर्थ गुणस्थान से प्रांरभ होकर सातवें गुणस्थान तक ही पाया जाता है। शुक्लध्यान तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि शुक्लध्यान के चार चरणों में से प्रथम
114 'तत्वार्थसूत्र' विवेचक पं. सुखलाल सिंघवी, पुस्तक से उद्धृत, पृ. 227
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