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________________ 286 दूसरे शब्दों में, रौद्रध्यान के स्वामी वे व्यक्ति होते हैं, जिनमें स्वहित-साधन के साथ-साथ पर के अनर्थ करने की वृत्ति भी होती है। रौद्रध्यान वस्तुतः वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए भी दूसरों का बड़े-से-बड़ा अहित कर सकता है। क्रोध एक आवेगात्मक अवस्था है, जो रौद्रध्यान की सहवर्ती होती है। इसमें व्यक्ति अपना विवेक भूल बैठता है और विरोधी के प्रति आक्रोश के भाव से ग्रस्त हो जाता है। धर्मध्यान के स्वामी की भूमिका के सम्बन्ध में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-परम्परा का मतभेद - आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्लध्यान के स्वामी कौन होते हैं, इस पर मैंने अपनी दृष्टि से तो विचार किया है, किन्तु जैन धर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर–सम्प्रदायों में इस प्रश्न को लेकर मतभेद पाया जाता है। मुख्य रूप से इन चारों ध्यानों में धर्मध्यान को लेकर ही यह मतभेद देखा जाता है। इस सम्बन्ध में जहाँ दिगम्बर-परम्परा चतुर्थ गुणस्थान से धर्मध्यान की संभावना को स्वीकार करती है, वहाँ श्वेताम्बर-परम्परा धर्मध्यान की संभावना को सातवें गुणस्थान से मानती है, क्योंकि जब तक आर्तध्यान और रौद्रध्यान रहे हुए हैं, तब तक धर्मध्यान की संभावना नहीं है। इसके विपरीत दिगम्बर–परम्परा का कहना यह है कि धर्मध्यान की संभावना चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक ही हो सकती है। सातवें गुणस्थान के पश्चात् श्रेणी आरोहण करने वाले. जीवों में मात्र शुक्लध्यान रहता है, अतः दिगम्बर-परम्परा के अनुसार धर्मध्यान की संभावना चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक ही मानी गई है, जबकि इसके विपरीत, श्वेताम्बर–मान्यता के अनुसार धर्मध्यान की संभावना सातवें गुणस्थान से प्रारम्भ होकर बारहवें गुणस्थान तक भी सम्भव है। धर्मध्यान में दूसरे के हित का विचार है और इस कारण से दिगम्बर–परम्परा का यह कहना है कि जो व्यक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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