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के चार आलम्बनों का भी उल्लेख किया है- 1. क्षमा 2. मार्दव 3. आर्जव और 4. मुक्ति। इन आलम्बनों के माध्यम से ही साधक शुक्लध्यान की सीमा में प्रवेश पा सकता है।
वस्तुतः, ये शुक्लध्यान के आलम्बन चार कषायों के त्यागस्वरूप ही प्रकट होते हैं। क्रोध के त्यागस्वरूप क्षमा का, मान के त्यागस्वरूप मार्दव का, माया के त्यागस्वरूप आर्जव का और लोभ के त्यागस्वरूप मुक्ति का प्रकटीकरण होता है। शुक्लध्यान को भी चार भागों में विभाजित किया गया है1. पृथक्त्ववितर्क-सविचार 2. एकत्ववितर्क-अविचार, 3... सूक्ष्मक्रिया-निवृत्ति और 4. व्युच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाति। 1. पृथक्त्ववितर्क-सविचार - इस ध्यान में साधक कभी द्रव्य से मन को हटाकर पर्याय में, तो कभी पर्याय से मन को हटाकर द्रव्य में स्थिर करता है। इस प्रकार, अर्थान्तर, व्यंजनान्तर तथा योगान्तर के कारण यह ध्यान पृथक्त्ववितर्क -सविचार नामक शुक्लध्यान कहलाता है। ऐसी स्थिति में भी ध्येय पदार्थ एक ही होता है, फिर भी ध्यान का संक्रमण कभी द्रव्य पर, तो कभी पर्याय पर होता रहता है। 2. एकत्ववितर्क-अविचार - जब द्रव्य एवं पर्याय में से किसी एक पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है, अर्थात् अन्तःकरण वस्तु की तीन अवस्थाओं अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य में से किसी एक ही पर्याय में चित्त स्थिर हो जाता है, तब वह एकत्ववितर्क-अविचार नामक दूसरा शुक्लध्यान कहा जाता है। 3. सूक्ष्मक्रिया-निवृत्ति - इस शुक्लध्यान के अन्तर्गत साधक के मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का क्रमशः निरोध हो जाता है, मात्र श्वासोश्वास की सूक्ष्म प्रवृत्ति शेष रहती है। यह सूक्ष्मक्रिया-निवृत्ति नामक तीसरा शुक्लध्यान है। 4. व्युच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाति - तेरहवें गुणस्थानवर्ती साधक अन्तिम समय में योगों का सम्पूर्णतः निरोध करता है। जो सूक्ष्म श्वासोश्वास चलता है, वह भी समाप्त हो जाता है, अर्थात् मन, वचन और काया- इन तीनों योगों की सर्वप्रवृत्तियों का निरोध होता है, साथ ही तेरहवां गुणस्थान भी पूरा हो जाता है और वह चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है, वहां शुक्लध्यान का चौथा भेद होता है।
... चौदहवें गुणस्थान का काल मात्र पांच हृस्वाक्षर (अ, इ, उ, ऋ, लु) के उच्चारण के समय जितना है। इस काल के अन्तर्गत उदय में प्राप्त हुई एवं सत्ता में स्थित सर्व कर्मप्रकृतियों का क्षय करके साधक कर्मरूपी बन्धन से तथा शरीररूपी बन्धन से
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