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शक्ति सीमित होती है और शत्रु-वर्ग भयंकर होता है, फिर भी अपने अद्भुत साहस और शौर्य से उसको परास्त करती है - यही आठवाँ गुणस्थान है। नौवाँ गुणस्थान वैसे ही है, जैसे युद्ध के बाद आन्तरिक अवस्था को सुधारने और छिपे हुए शत्रुओं के उन्मूलन के लिए किया जाता है।"93
इस गुणस्थान में धर्मध्यान में अभिवृद्धि और शुक्लध्यान की सम्भावना बढ़ जाती है।
9. अनिवृत्तिकरण-गुणस्थान -
इस गुणस्थान में साधक विषयों की आकांक्षाओं, इच्छाओं, कामनाओं से रहित होता है इसलिए अध्यवसायों में शुद्धता रहती है, अर्थात् पुनः उस साधक का मन इन विषयों की लालसा में नहीं जाता है। इस प्रकार के अध्यवसायों के कारण इसका नाम अनिवृत्तिकरण-गुणस्थान रखा गया है। 94 इस गुणस्थान में स्थूल कषायों का नाश करने का प्रयास होता है। परन्तु सूक्ष्मलोभ-कषायादि तो विद्यमान रहती हैं। अतः इसे अनिवृत्तिबादर-गुणस्थान अथवा बादरसम्पराय-गुणस्थान भी कहते हैं।
नौंवे गुणस्थानवी जीव दो प्रकार के होते हैं -एक, उपशमश्रेणी वाले और दूसरे, क्षपक श्रेणी वाले। जो चारित्रमोहनीय-कर्म का उपशमन करते हैं, वे उपशमश्रेणी वाले जीव कहे जाते हैं और जो मूलतः चारित्र-मोहनीय-कर्म का क्षय करते हैं वे क्षपकश्रेणी वाले जीव कहे जाते हैं। यह गुणस्थान अल्पकालिक होता है और धर्मध्यान और शुक्लध्यान की स्थिति पूर्ववत् हो जाती है।
93 'जैन बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' – पृ. 463 94 जैन धर्म-दर्शन, पृ. 498 95 वही, पृ-49
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