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________________ में जानने लगता है। सर्वज्ञप्रदत्त उपदेशादि में उसकी एक स्वाभाविक रुचि पैदा होती है, विचारों में शुद्धि होने के बावजूद भी आचरण की शुद्धता नहीं होती है । वह हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि को अकरणीय मानते हुए भी उन कार्यों में संलग्न रहता है; क्योंकि उसका ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् होता है, परन्तु आचरणात्मक-पक्ष सम्यक् नहीं होता। ऐसी परिस्थिति में वह वासनात्मक- - वृत्तियों के दुष्परिणाम का ज्ञाता होने पर भी उसको छोड़ नहीं पाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि इसमें व्रत, यम-नियमों से रहित मात्र सम्यक्त्व रहता है। ऐसे जीव को अविरतसम्यग्दृष्टि कहते हैं और इस अवस्था - विशेष को अविरत - सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान कहते हैं । गोम्मटसार के अनुसार, इस गुणस्थान में दर्शन एवं ज्ञान तो सम्यक् हो जाता है, किन्तु सम्यक्चारित्र का विकास नहीं होता है। 75 'गुणस्थानक–क्रमारोह' में लिखा है कि अविरतसम्यकदृष्टि - गुणस्थान वाला जीव अप्रत्याख्यानीयकषायचतुष्क के उदय होने से व्रत ग्रहण करने में असमर्थ होता है,7" लेकिन इसमें व्रतादि ग्रहण करने की भावना दृढ़ होती है। इसमें जीव तीर्थंकर नाम का उपार्जन कर सकता है। दिगम्बर- परम्परानुसार, इसमें जीव को धर्मध्यान करने की योग्यता होती है, अतः यह धर्मध्यान का उद्गम स्थान है। ” इसमें आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान भी संभव हो सकते हैं, यद्यपि वे तीव्र नहीं होते हैं। 5. देशविरति-सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान 271 यह जीव की आध्यात्मिक - विकास की पाँचवीं भूमिका है। चौथे अविरत - सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान में जीव को क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए इसकी जानकारी या इसका विवेक तो होता है, परन्तु वह व्रत - प्रत्याख्यान नहीं 75 गोम्मटसार, गाथा-29 द्वितीयानां कषायानामुदयाद्वतवर्जितम् । सम्यक्त्वं केवलं यत्र तच्चतुर्थ गुणास्पदम् ।। - गुणस्थानक्रमारोह-16 76 77 17 क) गुणस्थानक्रमारोह, गाथा 18–20, 23 ख) षट्खण्डागम - 1/1/12 ग) गोम्मटसार, जीवकाण्ड - 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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