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दिगम्बर–परम्परानुसार, प्रथम के दो शुक्लध्यान के स्वामी आठवें से चौदहवें • गुणस्थानवर्ती पूर्वधर होते हैं और चरम दो शुक्लध्यान क्रमशः तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं।
इस प्रकार, धर्मध्यान के स्वामी की चर्चा समाप्त होती है।
ध्याता और ध्यातव्य के भेदाभेद का प्रश्न
ध्यान के क्षेत्र में ध्याता, ध्यातव्य और ध्यान -ये तीन मुख्य आधार होते हैं।
ध्याता आत्मा है, यह एक निर्विवाद सत्य है, किन्तु उसका ध्यातव्य क्या है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। ध्यातव्य अनेक भी हो सकते हैं, किन्तु यदि हम सूक्ष्मता से विचार करें, तो ध्याता और ध्यातव्य में जब तक तादात्म्य नहीं बनता है, तब तक ध्यान संभव ही नहीं होता है।
ध्यान में ध्याता और ध्यातव्य –इन दोनों में तादात्म्य-संबंध हो जाता है, इसलिए यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ध्याता और ध्यातव्य में किस सीमा तक अभेद होता है और किस सीमा तक भेद होता है ? यह एक चिन्तनीय प्रश्न है।
ध्यान करने वाला ध्याता कहा जाता है और ध्यान का जो विषय होता है, वह ध्यातव्य कहलाता है, किन्तु ध्यान के विषय के लिए जब हम ध्यातव्य शब्द का प्रयोग करते हैं, तब हमें यह समझ लेना चाहिए कि ध्यातव्य का अर्थ मात्र ध्यान का विषय नहीं, अपितु उसका तात्पर्य जिसका ध्यान किया जाना चाहिए, उससे है, अतः जैनधर्म और आचारशास्त्र की अपेक्षा से केवल धर्मध्यान और शुक्लध्यान के विषय ही ध्यातव्य की कोटि में आते हैं।
आर्त्त और रौद्रध्यान के विषय ध्यातव्य नहीं माने जा सकते हैं। व्यावहारिकदृष्टि से देखने पर ध्यातव्य और ध्याता -दोनों अलग-अलग होते हैं, क्योंकि ध्याता आत्मा है और ध्यातव्य धर्मध्यान और शुक्लध्यान के वे तथ्य हैं, जिनका ध्यान किया
4। जैनसाधना पद्धति में ध्यान, डॉ. सागरमल जैन, पृ.32
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