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________________ 207 स्थानांगसूत्र के अनुसार, संसार, देह और भोगों के अशुभत्व का विचार करना ही अशुभानुप्रेक्षा है।620 __ अध्यात्मसार में लिखा है कि यह संसार अनादि-अनन्तकाल से चलता आ रहा है। समग्र लोकाकाश की कोई भी ऐसी जगह न होगी, जहां जीव ने जन्म-मरण न किया होगा। ___ इस संसार-चक्र के परिभ्रमण में जीव अनंतानंत भव कर चुका है। अनेकानेक रिश्ते-नाते जोड़े, परन्तु वे सभी स्थाई न रह सके, इनके पीछे आसक्त बनकर बहुत दुःख एवं कष्ट भोगे, जबकि आत्म-वैभव एवं आत्मिक-सुख शाश्वत हैं, हितकारी हैं तथा कल्याणकारी हैं, फिर भी यह जीव भौतिक सुख-साधनों के पीछे भागदौड़ करता रहता है। इस प्रकार, संसार के स्वभाव का चिन्तन ही अशुभानुप्रेक्षा है।621 इसके अतिरिक्त, स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ध्यानदीपिका23. ध्यानकल्पतरू24. ध्यानविचार25 आदि ग्रन्थों में लिखा है कि संसार दुःखमय है और जीव सुख की खोज में अनन्तकाल से भटक रहा है, परन्तु भटकन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिला। राग-द्वेषात्मक संसार की अशुभता का, असारता का सम्यक् प्रकार से विचार करना अशुभानुप्रेक्षा है। 3. अनन्तवर्त्तितानुप्रेक्षा - ध्यानशतक के कर्ता ने कहा है कि अनन्तता का विचार-विमर्श करना- वह अनन्तवर्त्तिततानुप्रेक्षा है।626 संसारपरिभ्रमण के कारण मिथ्यात्व, राग-द्वेष मोहादि हैं। उनमें भी मिथ्यात्व प्रमुख है। जब तक जीव की दृष्टि मिथ्यात्व से मलिन रहती है, तब तक वह जीव मिथ्यादृष्टि और अपरीतसंसारी होता है, उसका संसार अनन्त बना रहता है। इसके विपरीत, जिसकी दृष्टि मिथ्यात्वजनित कालुष्य का त्याग कर समीचीनता को प्राप्त कर लेती है, उस सम्यग्दृष्टि जीव का संसार सीमित हो जाता है, तब वह अनन्त संसारी न 040 स्थानांगसूत्र, सं. मुनि मधुकर, चतुर्थ स्थान, प्रथम उद्देशक, सूत्र- 72. प. 226. 621 संसारानुभाव .................................... || - अध्यात्मसार- 16/81. 622 सव्वंपि होदि णरए खेत्त-सहावेण दुक्खदं असुहं।। कुविदा वि सव्व-कालं अण्णोण्णं होदि णेरइया।। – स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा- 38. 623 ध्यानदीपिका, गुजराती भाषान्तर पुस्तक से उद्धृत, पृ. 390. 024 ध्यानकल्पतरू, चतुर्थ शाखा, द्वितीय-पत्र, पृ. 384. 625 ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 36. 020 भवसंताणमरणन्तं ....................... || - ध्यानशतक, गाथा- 88. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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