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________________ 202 इस प्रकार, शुक्लध्यान की प्रथम अवस्था से क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते चरमावस्था के अन्तर्गत केवली तीनों योग-प्रवृत्तियों का सम्पूर्ण निरोध कर अन्त में सिद्धावस्था को प्राप्त करते हैं, जो कि धर्मसाधना और योगसाधना का अन्तिम लक्ष्य है। शुक्लध्यान के द्वार 1. ध्यातव्य-द्वार - जैसा कि हमने पूर्व में ही सूचित किया था कि शुक्लध्यान आत्म–मुक्ति का मूल मन्त्र है। शुक्लध्यान के माध्यम से मन को शान्त और निर्विकल्प किया जाता है। इस ध्यान की अन्तिम परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है। ध्यानशतक की गाथा क्रमांक सतहत्तर से बयासी तक शुक्लध्यान के ध्यातव्य-द्वार का विवेचन है। यहां ध्यातव्य से तात्पर्य ध्यान के विषय से है। इसमें यह बताया गया है कि प्रत्येक द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- ये तीन अवस्थाएं पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक द्रव्य, गुण और पर्याय से युक्त है। पर्यायें बदलती रहती हैं, अतः शुक्लध्यान के प्रथम चरण में एक ही द्रव्य में जो समकाल होता है, उस समकाल में होने वाली उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य की अवस्थाओं का चिन्तन होता है। आगम एवं नय आदि के अनुसार द्रव्य के स्वरूप का चिन्तन करना प्रथम पृथक्त्व-वितर्क-सविचार नामक शुक्लध्यान का ध्यातव्य है।594 यहां जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने एक बात विशेष रूप से कही है कि इस चिन्तन में वस्तु के प्रति रागभाव का अभाव होता है, फिर भी द्रव्यसत्ता की क्रमशः होने वाली विभिन्न पर्यायों का तथा नयानुसार विभिन्न विकल्पों का चिन्तन चलता रहता है। इसमें द्रव्य एक रहता है, किन्तु पर्यायें बदलती रहती हैं। जब द्रव्य की एक ही पर्याय में चित्त की अवस्थिति स्थिर हो जाती है, तो वह एकत्व-वितर्क-अविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान का ध्यातव्य-द्वार होता है, अतः यहां विचार या विकल्प नहीं होते हैं।595 निर्वाणकाल के समय केवली के द्वारा शैलेशी अवस्था में स्थित होना और स्थूल मन-वचन और काया के योगों का निरुद्ध हो जाना सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती नामक 594 उप्पाय-ट्ठिइ-भंगाइपज्जयाणं ...... सवियारमरागभावस्स ।। – ध्यानशतक, गाथा- 77-78. 595 जं पुण सुणिप्पकपंनिवाय ........... वितक्कमवियारं ।। - ध्यानशतक, गाथा- 79-80. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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