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ग्रन्थ का नामकरण एवं परिचय आचार्य हरिभद्र (आठवीं शती) के पूर्ववर्ती तथा परवर्ती काल के जैनाचार्यों ने ध्यान के सम्बन्ध में पर्याप्त मात्रा में चिन्तन-मनन किया था, साथ-ही-साथ उस विषय पर उन्होंने स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे थे।
श्वेताम्बर - परम्परा में ध्यान से सम्बन्धित यदि कोई प्राचीनतम स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध है, तो वह जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा विरचित 'झाणज्झयण' है, जिसका अपर नाम 'ध्यानशतक' भी है।
ध्यान-साधना से सम्बन्धित इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के नाम को लेकर प्राचीन काल से दो विचारधाराएँ रही हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने अपने आवश्यकसूत्र की टीका में इस ग्रन्थ को उद्धृत करते हुए इसका नाम 'ध्यानशतक' निर्दिष्ट किया है, जबकि मूल ग्रन्थकार जिनभद्रगणि ने इसे ध्यानाध्ययन (झाणज्झयण) कहा है। वैसे तो अपनी-अपनी अपेक्षा से इन दोनों नामों की सार्थकता प्रतीत होती है, फिर भी मूल ग्रन्थ के रचयिता जिनभद्रगणि ने मंगल स्वरूप प्रथम गाथा में जो संकल्प किया है, उसके अनुसार इसका नाम ध्यानाध्ययन मानना ही अधिक उचित प्रतीत होता है । इसकी प्रथम मंगल गाथा में 'झाणज्झयणं पवक्खामि' कहकर ग्रन्थकर्त्ता ने इसका नाम ध्यानाध्ययन निर्दिष्ट किया है । सम्भवतः, इसके पीछे उनका उद्देश्य यह रहा होगा कि उन्होंने विशेषावश्यकभाष्य लिखते समय छः ही आवश्यकों पर भाष्य लिखने का निश्चय किया था। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग तथा प्रत्याख्यान - नन्दीसूत्र के अनुसार ये आवश्यकसूत्र के छः अध्ययन हैं, जिन्हें इस सूत्र में स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में भी उल्लेखित किया गया है। उपर्युक्त छः आवश्यकों में पाँचवां आवश्यक-कायोत्सर्ग माना गया है, इसका अपर नाम ध्यान भी है।
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प्रथम अध्याय
विषय-प्रवेश
वीरं सुक्कज्झाणग्गिदड्ढकम्मिंधणं पणमिऊणं ।
जोईसरं सरणं झाणंज्झयणं पवक्खामि ।।
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ध्यानशतक, गाथा- 01 'ध्यानशतकस्य च महार्थत्वाद्... ..माह । - आवश्यक नियुक्ति, भाग - 02 विशेषावश्यकभाष्य - 01
नदीसूत्र.
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