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________________ _186 1. अवध-लक्षण – ध्यानशतक के ग्रन्थकर्ता शुक्लध्यान के प्रथम लिङ्ग का निर्देश करते हुए कहते हैं कि बाईस परीषह82 और उपसर्गों से विचलित और भयभीत न होना, अर्थात् अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में चलायमान् न होना ही अवध-लक्षण है।483 जैसा कि कहा गया है- शुक्लध्यान का साधक मानव, देव, तिर्यंच-कृत उपसर्गों और सभी प्रकार के परीषहों को समभाव से सहने में सक्षम होता है।184 विश्व की कोई भी शक्ति उसे ध्यान की चिरस्थिरता से विचलित नहीं कर सकती और न ही वह कभी व्यथित हो सकता है। स्थानांगसूत्र में भी इसी बात का समर्थन किया गया है, उपसर्गादि से पीड़ित होने पर ही क्षोभित नहीं होना- यह शुक्लध्यानी का प्रथम अवध-लक्षण है।485 __अध्यात्मसार में कहा है- शुक्लध्यानी में अवध नामक प्रथम लिंग होता है। अवध का अर्थ है- अचलता, अर्थात् चलायमान् नहीं होना। शुक्लध्यान पर आरूढ़ हुए साधक को देह और आत्मा की भिन्नता का भान सतत रहता है, इसलिए उपसर्ग आने पर भयभीत या शोकातुर नहीं होता है, बल्कि उन्हें समभाव से सहन करता है।486 ____ ध्यानविचारसविवेचन में तो कहा है कि साधक में अवध लक्षण होने पर देवादिकृत उपसर्गों में भी व्यथा का अभाव होता है।487 2. असम्मोह-लक्षण - ध्यानशतक के रचयिता शुक्लध्यानी के दूसरे लक्षण को निरूपित करते हुए कहते हैं कि अत्यन्त गहन, सूक्ष्मभाव तथा देवमाया से सम्मोहित नहीं होना, अर्थात् मोहित न होना ही असम्मोह है। यह शुक्लध्यान का दूसरा लक्षण है, जिसका अभिप्राय है- शुक्लध्यानी सम्मोहित नहीं होता है। मूर्छित होना, ममत्व करना, दूसरों के प्रभाव से प्रभावित होना, दूसरों के निर्देशों में आबद्ध हो जाना, ऋद्धि-सिद्धियों के चमत्कारों से चमत्कृत होना- ये सभी सम्मोह के ही रूप हैं। (ख) उत्तराध्ययन, द्वितीय अध्ययन (ग) समवायांगसूत्र- 22/1. 483 चालिज्जइ बीहेइ व धीरो न परीसहोवसग्गेहि। - ध्यानशतक, गाथा- 91. 484 मार्गाऽच्यवननिर्जरार्थ परिसोढव्याः परीषहाः - तत्त्वार्थसूत्र- 9/8. 485 स्थानांगसूत्र, उद्देशक- 4/1, सूत्र- 70. 486 अवधादुपसर्गेभ्यः कम्पते न बिभेति वा। - अध्यात्मसार- 16/84. 487 ध्यानविचारसविवेचन, पृ. 35. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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