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________________ ___162 1 (द). वैराग्य-भावना - ध्यानशतक में वैराग्य भावना का निरूपण करते हुए कृ तिकार कहते हैं- संसार के स्वभाव को भलिभांति जान लेने और विषयासक्ति, भय तथा अपेक्षाओं से मुक्त होने पर हृदय में वैराग्यभाव उत्पन्न हो जाता है। फलस्वरूप, ध्यान में स्थिरता आ जाती है, निसंगता, निर्भयता आदि गुणों की सहज रूप से प्राप्ति होती है।350 आचारांग की चूलिका के अनुसार वैराग्य-भावना अर्थात् सांसारिक-सुखों की जुगुप्सा, साथ ही यह चिन्तन कि ज्ञान, दर्शन से युक्त मेरी आत्मा शाश्वत है, बाकी सब संयोग मेरा बाह्य-भाव है।151 . तत्त्वार्थसिद्धवृत्ति के अनुसार, तप और त्याग करने के लिए मैं समर्थ हूं, शरीर-शुश्रूषा का त्याग करने में मैं समर्थ हूं, मेरा कौनसा तप कौनसे द्रव्य में चलता है- इस प्रकार का चिन्तन करना, संसार के प्रति निर्वेद-भावना माना है।352 संक्षेप में, अनासक्ति, अनाकांक्षा और अभय-प्रवृत्ति का सतत अभ्यास करना ही वैराग्य-भावना है।353 अध्यात्मसार में कहा है कि वैराग्य-भावना का अभ्यास करने वाले को विनाशशील संसार के स्वभाव तथा शरीर के स्वरूप को जानकर अनासक्त बनना चाहिए, विषय-वासनाओं से विरक्त होना चाहिए। ऐसी भावना से हृदय को भावित करने पर धर्मध्यान करने वालो की योग्यता में वृद्धि होती है।354 ध्यानविचार के अनुसार वैराग्य-भावना के तीन भेद हैं1. अनादि भव-भ्रमण का चिन्तन 2. विषयों की विमुखता और 3. देह की अशुचिता का चिन्तन।355 ध्यानदीपिका में लिखा है कि विषयों के प्रति ममत्व नहीं रखना, तत्त्वों का चिन्तन करना, स्वभाव का विचार करना वैराग्य-भावना है। इससे साधक सहज ही ध्यानारूढ़ हो सकता है।356 350 सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निभओ निरासो य। वेरग्गभावियमणो झाणमि सुनिच्चलो होइ।। - ध्यानशतक, गाथा- 34. 351 इत्येवं तपसि भावना विधेया। एवं संयमे इन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहरूपे तथा संहनने वजर्षभादिके .... वैराग्यभावना अनित्यत्वादि भावनारूपा। - आचारांगसत्रे चलिका. 352 वैराग्यं नामेत्यादि। विरागभावोवैराग्यम् ....... || - तत्त्वार्थसिद्धवृत्तौ. 953 जैनसाधना-पद्धति में ध्यानयोग, प. 268. अध्यात्मसार-16/19-20. 355 वैराग्यभावना-अनादि भवभ्रमण चिन्तन-विषयवैमुख्य-शरीराशुचिता चिन्तन भेदात् त्रिधा सुविइयजगस्सभावो इत्यादि।। - ध्यानविचार-सविवेचन, पृ. 174. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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