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________________ - 160 तटस्थभाव से पदार्थ को देखना दर्शन-भावना है। इसके सम, संवेगादि पांच गुण हैं और शंका, कांक्षादि पांच दोष हैं।339 अध्यात्मसार में कहा है कि दर्शन-भावना का अभ्यास करने वाले को सदैव सुगुरु-सुधर्म के स्वरूप को जानना चाहिए। जिनवचनों पर श्रद्धा रखकर शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, प्रशंसा और संस्तवन- इन सम्यक्त्व के पांच दूषणों को प्रयत्नपूर्वक दूर करना चाहिए तथा जिनशासन की प्रभावना, जिनाज्ञा आदि का बराबर पालन करना चाहिए।340 ध्यानविचार के अनुसार आज्ञारुचि, नवतत्त्व-रुचि और अट्ठाईस परम तत्त्वों की रुचि (अर्थात् ध्यान के चौबीस भेदों की रुचि) वाली 'दर्शनभावना' तीन भेद वाली है।341 ध्यानदीपिका में लिखा है कि संवेग, उपशम, स्थिरता, दृढ़-निश्चयता, निरभिमानता, आस्था और अनुकम्पा- ये दर्शनभावना के लक्षण हैं।342 1 (स). चारित्र-भावना – ध्यानशतक के कर्ता आचार्य जिनभद्रगणि ने चारित्र-भावना को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शुभत्व में स्थिर होने के लिए अशुभत्व का निराकरण अनिवार्य है। यह सत्य है कि शुभत्व के माध्यम से भी नवीन कर्मों का आदान तो होता है, किन्तु उसके साथ पुराने कर्मों की निर्जरा भी होती है, क्योंकि शुभ नाम, गोत्र, कर्मों के उपार्जन से वह पुण्य-प्रकृति का बंध करता है, जिसके अन्तर्गत साता-वेदनीय, सम्यक्त्वमोह, पुरुषवेद, शुभायु, नाम, गोत्र आदि की प्राप्ति होती है, जिसके माध्यम से वह साधना के क्षेत्र में आगे प्रगति कर सकता है।343 339 प्रस्तुत संदर्भ जैनसाधना-पद्धति में ध्यान पुस्तक से उद्धृत, पृ. 268. 340 अध्यात्मसार- 16/19-20. 341 दर्शनभावना आज्ञारूचि-तत्त्व-परमतत्त्व-रूचि भेदात् त्रिधा संकाइदोसरहिओ इत्यादि।।. - ध्यानविचार–सविवेचन, पृ. 174. 342 संवेगः प्रशमः स्थैर्यमसंमूढत्वमस्मयः । आस्तिक्यमनुकंपेति ज्ञेया सम्यक्त्व भावना।। – ध्यानदीपिका- 2/9. 343 नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं। चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ।। - ध्यानशतक, गाथा- 33. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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