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________________ 4. निसर्गरुचि ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से सहजता से स्वभाव में रुचि होना निसर्गरुचि है। जिसे आर्त्त - रौद्रध्यान कटु लगते हों, हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के प्रति स्वभावतः अरुचि हो और अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शान्ति, संयमरूप स्वधर्म में रुचि हो, वही निसर्गरुचि है, जो धर्मध्यान का ही लक्षण है | 209 स्थानांगसूत्र में कहा है कि द्वादशांगी - रूप जिनवाणी के अवगाहन में प्रगाढ़ रुचि होना 'अवगाढ़रुचि' है । यह धर्मध्यान का चतुर्थ लक्षण है | 210 यहां धर्मध्यान की पहचान के लिए ये चार लक्षण बताए गए हैं। जिन - प्ररूपित तत्त्वों पर श्रद्धा उत्पन्न होने के बाद जीव स्वतः ही जिनवाणी को अपने ध्यान का या चिन्तन का विषय बना लेता है तथा उसकी धार्मिक कार्यों के लिए सहज रुचि पैदा हो जाती है। धार्मिकानुष्ठान के प्रति रुचि होने पर वह उनको जानने के लिए आगमों के पठन-पाठन में लीन होने लगता है। जब बोधप्राप्ति हेतु वह पठन-पाठन, चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श में निमग्न हो जाता है, तब साधक को सम्यक् प्रकार से तत्त्वज्ञान आत्मगत हो जाता है। अनुराग, सत्य के प्रति अनुराग, सूत्र के प्रति अनुराग और गहन सूत्राध्ययन के लिए अनुराग ही धर्मध्यानी की पहचान है। इस प्रकार वह आगम के अनुशीलन में एकाकार हो जाता है। उत्तराध्ययन--1 - निर्युक्ति के अन्तर्गत रुचि के दस भेद बताए गए हैं। वे निम्नांकित हैं 1. निसर्गरुचि 2. उपदेशरुचि 3. आज्ञारुचि 4. सूत्ररुचि 5. बीजरुचि 6. अधिगमरुचि 7. विस्ताररुचि 8. क्रियारुचि 9. संक्षेपरुचि और 10. धर्मरुचि । 211 209 ध्यानशतक, गाथा - 67. (क) धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णता तं जहा – आणारूई, णिसग्गरूई, सुत्तरूई, ओगाढ़रूई । - स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देश्यक- 1, सूत्र - 66, पृ. 224. (ख) औपपातिकसूत्र - 20. (ग) भगवतीसूत्र - 802. (घ) लक्खणाणि इमाणि चत्तारि - आणारूई, निसग्गरूई, सुत्तरूई, ओगाहरूई । आणारूई - तित्थगराणं आणं पसंसति, निसग्गरूई-सभावतो जिणप्पणीए, भावे रोयति, सुत्तरूई - सुतं पढंतो संवेगमावज्जति, ओगाहणारूई - णयवादभंगगुविलं सुत्तमत्थतो सोतूण संवेगमावन्नसद्धो झायति । - आवश्यकचूर्णि निस्सग्गुवएसरूई आणारूई सुत्तबीय रूइमेव । अभिगमवित्थाररूई किरिया संखेवधम्मरूई । पाइयटीकापेत - उत्तराध्ययननियुक्ति. 210 211 139 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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