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________________ 137 इसी प्रकार, न्यायसूत्र में कहा गया है कि आप्तकथन आगम हैं।194 आचार्य मल्लिषेण ने भी आप्तव पन से पदार्थों के ज्ञान करने को ही आगम कहा है।195 जैन-परम्परा में आगम के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग उपलब्ध है, यथा- सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, आज्ञा, वचन, उद्देश्य, प्रज्ञापन, आगम196, आप्तवचन, ऐतिह्य-आम्नाय, जिनवचन तथा श्रुत'7, किन्तु वर्तमान में 'आगम' शब्द ही ज्यादा प्रचलित है। आगम से भेदविज्ञान होता है, जिससे संसार, शरीर के प्रति विरक्ति होती है और विरक्ति से आत्मविशुद्धि होती है, अतः आगमानुसार आचरण करना चाहिए। स्थानांगसूत्र में कहा है कि जिनाज्ञा के चिन्तन-मनन में रुचि होना ही 'आज्ञारुचि' है, जो धर्मध्यान का प्रथम लक्षण है।198 अध्यात्मसार में उपाध्याय यशोविजयजी ने धर्मध्यानी के तीन लक्षण बताए हैं। प्रथम लक्षण है- श्रद्धा, अर्थात् आगम के प्रति अटल श्रद्धा । 199 संक्षेप में कहें, तो जिनेश्वर भगवान् के वचनों की अनुपमता, कल्याणकारिता, समस्त सत्-तत्त्वों की यथार्थ प्रतिपादकता आदि जानकर उनके प्रति श्रद्धा ही आज्ञारुचि नामक धर्मध्यान का प्रथम लक्षण है।200 2. उपदेशरुचि - जिससे सही मार्गदर्शन मिलता हो, उसे उपदेश कहते हैं। सही दिशा, मार्गदर्शन का तात्पर्य है- अपने निश्चित लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। दूसरे शब्दों में, आत्मा को दोषों से मुक्त करके शुद्ध-पवित्र निजस्वरूप को उद्घाटित करना ही साधना का लक्ष्य है। वीतरागवाणी के ज्ञान से अथवा धर्मध्यान से आत्मा को शुद्धस्वरूप की प्राप्ति होती है। आगम के उपदेश को सुनना ही उपदेशरुचि है। उपदेश दो प्रकार से ग्रहण किया जाता है- 1. स्वानुभव से 2. परानुभव से |201 194 आप्तोपदेशः शब्द । - न्यायसूत्र- 1/1/7. 195 आप्तवचनादाविर्भतमर्थसंवेदनमागमः ।। स्यादवादमंजरी- 28. 196 सुयसत्त ग्रन्थ सिद्धंतपवयणे आणवयण उपएसे पण्णवण आगमे या एकठ्ठा पंजावासुत्ते। - अनुयोगद्वार- 4, उद्धृत- अनुयोगद्वारसूत्र, सं. मधुकरमुनि, प्रस्तावना, पृ. 31. 197 तत्त्वार्थभाष्य- 1/20. 198 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देश्यक- 1, सूत्र- 66, पृ. 224. 199 लिङ्गान्यत्रागमश्रद्धा। - अध्यात्मसार- 16/71. 200 ध्यानविचार सविवेचन, पृ. 20. 201 ध्यानशतक, कन्हैयालाल लोढ़ा, गाथा- 27, पृ. 102. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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