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________________ रौद्रध्यान का स्वरूप आता है, जिसमें कुटिल भावों का चिन्तन किया जाता है । सामान्यतः, रौद्र का अर्थ होता है- क्रोध, बर्बर भयानक आदि । दूसरों को रुलाने या कष्ट देने की जो वृत्ति है, वह रौद्रध्यान है। दूसरे शब्दों में, प्राणियों की हिंसा आदि परिणामों से परिणत आत्मा रौद्र कहलाती है। ऐसी आत्मा की चैतसिक-क्रिया अथवा व्यापार को रौद्रध्यान कहते हैं। संक्षेप में, हिंसादि क्रूर प्रवृत्तियों में निरन्तर मानसिक - परिणति-रूप एकाग्रता रौद्रध्यान है । रौद्रध्यान का स्वरूप और लक्षण कहा भी गया है- 'प्राणिनां रोदनाद् रूद्रः तत्त्र भवं रौद्रम्, अर्थात् क्रूर, कठोर एवं हिंसक व्यक्ति को रुद्र कहा जाता है और उस प्राणी, अर्थात् जिसके द्वारा वह कार्य किया जाता है, उसके भाव को रौद्र कहते हैं। 74 इसी आधार पर महापुराण में कहा गया है कि जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है, वह रुद्र एवं क्रूर कहलाता है और उस पुरुष के द्वारा जो ध्यान किया जाता है, वह रौद्रध्यान कहलाता है। 75 रौद्रध्यान भी अप्रशस्त - ध्यान के अन्तर्गत ही आरम्भ - समारम्भ की प्रवृत्ति में लगे रहना, दूसरों को दुःख देने का विचार करना, उन्हें पीड़ित करने में आनन्द मानना आदि सभी कार्यों में चित्त की एकाग्रता रौद्रध्यानरूप ही है । " रौद्रध्यान में हिंसा करने का प्रगाढ़ अध्यवसाय होने से इस ध्यान को उबलते हुए सीसे के (रस) संश्लेषण से उपमित किया गया है । " 73 (क) रोदयत्यपरानिति रूद्रो दुःखस्य हेतुः तेन कृतं तत्कर्म वा रौद्रं, प्राणिवधबन्धपरिणत आत्मैव रूद्र इत्यर्थः । । 74 तत्त्वार्थसूत्रटीका- 9-29. (ख) रोदयत्यपरानिति रूद्रः - प्राणिवधादिपरिणत - आत्मैव तस्येदं कर्म रौद्रम् । प्रवचनसारोद्धारवृत्ति - 1. रूद्रः क्रूराशयः प्राणी रौद्रकर्मास्य कीर्त्तितम् । 75 रूद्रस्य खलु भावो वा रौद्रमित्यभिधीयते ।। (क) प्राणिनां रोद्नाद् रूद्रः क्रूरः सत्वेषु निर्घृणः । पुसांस्तत्र भवरौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ।। (ख) मूलाचार - 396. (ग) भगवती - आराधना 76 77 116 Jain Education International — · ज्ञानार्णव- 24 / 2. महापुराण - 21/42. 1703, 1528. स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, उद्देशक- 1, सूत्र - 62, पृ. 222. ध्यानविचार - सविवेचन, पृ. 14. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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