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अनिष्ट वस्तुओं का संयोग, शारीरिक-वेदना आदि की स्थिति प्राप्त होती है, तब वह स्वतः ही कुछ कुचेष्टाओं का शिकार हो जाता है।
ध्यानशतक ग्रन्थ में आर्त्तध्यान के तेरह लक्षणों की चर्चा है। वे तेरह लक्षण इस प्रकार हैं1. आक्रन्दन - जोर-जोर से रोना। . 2. शोचन - दैन्यभाव का प्रदर्शन करते हुए शोक करना अथवा अश्रु से
परिपूर्ण नयनों से अपने दुःख को प्रकट करना। 3. परिदेवन -
यत्र-तत्र सर्वत्र बार-बार क्लिष्ट अथवा दुःखकारक शब्दों का
उच्चारण करना। 4. ताडन - स्वयं को पीटना, छाती कूटना, सिर फोड़ना, केश खींचना .
इत्यादि लक्षण इष्ट वियोगादि में घटित होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य निम्न लक्षण भी हैं
1. निन्दा - स्वयं के द्वारा किए हुए कर्म-व्यापार, शिल्पकलादि के निष्फल
सत्कार्यों की निन्दा करना। 2. प्रशंसा - दूसरे की सम्पत्ति की उपलब्धि पर आश्चर्य प्रकट करना। 3. प्रार्थना - ___ सम्पत्ति की प्राप्ति की आकांक्षा अथवा अभिलाषा करना। 4. रंजना - प्राप्त हुई सम्पत्ति में आसक्त बने रहना। 5. प्रयत्न - अधिक सम्पत्ति पाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना। 6. आसक्ति -
शब्दादि विषयों में मूर्छित होना। 7. पराङ्मुखता - क्षमादि दस प्रकार के यतिधर्म के पालन से विमुख होना। 8. प्रमादभाव - प्रमाद में प्रवृत्त रहना अथवा विकथादि में मग्न रहना। .
तस्सऽक्कंदण-सोयण-परिदेवण-ताडणाइं लिंगाई। ... इट्ठाऽणिट्ठविओगाऽविओग-वियणा निमित्ताइ ।। निंदइ य नियकयाइं पसंसइ सविम्हओ विभूईओ। पत्थेइ तासु रज्जइ तयज्जणपरायणो होइ।। सद्दाइविसयगिद्धो सद्धम्मपरम्महो पमायपरो। जिणमयमणवेक्खंतो वट्ठइ अट्टमि झाणमि।। - ध्यानशतक, गाथा 15-17.
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