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प्रस्तुत ग्रन्थ की हरिभद्रीय-टीका में ध्यान की परिभाषा - आचार्य हरिभद्र ने ध्यानाध्ययन की दूसरी गाथा की टीका में मूल ग्रन्थ की गाथा का समर्थन करते हुए कहा है कि अध्यवसायों की स्थिरता ध्यान है।००
उपाध्याय यशोविजयजी ने भी अध्यात्मसार (16/1) में ध्यान की इसी परिभाषा को स्वीकार किया है। जहां मूल ग्रन्थ की दूसरी गाथा की टीका में आचार्य हरिभद्र ने अध्यवसायों की अस्थिरता को चित्त-संज्ञा दी है, वहीं उपाध्याय यशोविजयजी ने भी अस्थिर अध्यवसायों को चित्त-संज्ञा देते हुए कहा है कि यह चित्त की अस्थिरता भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता-रूप होती है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में और उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में मूल ग्रन्थ की दूसरी गाथा के अर्थ को ही स्पष्ट किया है, लेकिन इस सन्दर्भ में आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में कुछ विशेष चर्चा की है। वे लिखते हैं कि 'जो होती है' या 'अनुभूत होती है', उसे भावना कहा जाता है," अथवा जो भाव किया जाता है, उसे ही भावना कहते हैं। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में ध्यान के अभ्यास हेतु चित्त की सक्रियता ही भावना है। 2 दूसरे शब्दों में, भावना चित्त की ध्यानाभिमुख अवस्था है।
आचार्य हरिभद्र ने अनुप्रेक्षा को ध्यान से भिन्न इसलिए माना है कि अनुप्रेक्षा ध्यान के पश्चात्, अर्थात् उसके विचलन के बाद होने वाली स्मृति है, इसलिए जहां भावना ध्यानाभिमुखं है, वहां अनुप्रेक्षा ध्यान के विचलन या समाप्ति के पश्चात् उत्पन्न स्मृति है,63 साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि चित्त की जो विभिन्न चेष्टाएं हैं, वह अनुप्रेक्षा नहीं है, अपितु उसके चित्त में जो अनित्यादि भावनाएं रहती हैं, वह अनुप्रेक्षा है। इस प्रकार, यहां चित्त की चंचलता को अनुप्रेक्षा से जोड़ा गया है। भावना और अनुप्रेक्षा से अलग करते हुए आचार्य हरिभद्र ने चिन्ता को चिन्तन से जोड़ा है। इस प्रकार, चिन्ता, अनुप्रेक्षा और भावना- दोनों से भिन्न मानी गई है। वे अपनी टीका में लिखते हैं कि मन की जो
७० यत् स्थिरमध्यवसानं तद् ध्यानमभिधीयते। - ध्यानतशक, हरिभद्रीयटीका. 61 भवतीति तत्भवेत् भावना। - ध्यानतशक, हरिभद्रीयटीका- 2. 62 भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः । – ध्यानतशक, हरिभद्रीयटीका- 2.
६७ स्मृतिर्ध्यानाद भ्रष्टस्य चित्तचेष्टेत्यर्थः । - ध्यानतशक, हरिभद्रीयटीका- 2. " चित्रा मनचेष्टा सा चिन्तेति। - हरिभद्रीयवृत्ति, ध्यानशतक, सं. – विजयकीर्त्तियशसूरि, गाथा- 2, पृ. 11.
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